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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
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मूर्ति पूजा की सार्थकता :
ज्योतिषचार्य मनिश्री जयप्रभविजय, 'श्रमण मानव जीवन से मूर्ति का उतना ही पुराना संबंध है जितना मानव जाति के इतिहास का। मूर्तियां-प्रतिकृतियां निर्माण करना उनमें कुछ खोजना-प्रस्थापित करना अभिव्यक्त करना मानव स्वभाव की एक प्रकृति प्रदत्त विद्या है।
आदि युग में बनाये गये शिला चित्र, गुफाओं के चित्र, मनुष्य के मूर्ति-प्रतिकृति संबंधी प्रेम के परिचायक है। प्रतीकों, चित्रों, प्रतिकृतियों आदि के माध्यम से मनुष्य अपनी भावाभिव्यक्ति करता आया है। कालांतर में इसी आधार पर प्रतीक-पूजा, मूर्ति-पूजा आदि का प्रसार-प्रचार हुआ। आदिम कबीलों से लेकर आज के सभ्य समाज में मूर्ति-पूजा का कोई न कोई रूप बन रहा है। जिन्होंने मूर्ति-पूजा का विरोध किया वहां भी परिवर्तित रूप में प्रतीक-पूजा का आश्रय लिया गया। इसके विस्तार में न जाकर हम यहाँ मूर्ति-पूजा के मूलाधार को समझाने का प्रयत्न करेंगें।
मूर्ति-पूजा संबंधित महापुरुष, देव, तीर्थकर आदि के स्मरण करने का एक सहज माध्यम है। अनेक प्रवृत्तियों में बिखरे मन को अपने इष्ट, पूज्य के प्रति केंद्रीभूत करने में मूर्ति का माध्यम एक सरल आधार है। मूर्ति ध्यान के लिए श्रेष्ठ अवलंबन है। अपने इष्ट की मूर्ति के प्रति जितनी गहरी तादात्म्यता होगी, उतनी ही ध्यान की प्रगाढ़ता उपलब्ध होती चली जायेगी। ध्यान-मन की एकाग्रता के लिए मूर्ति सहज व्यक्त आधार है। यद्यपि निर्गुण उपासना, भाव-आराधना उच्चस्तरीय उपासना है। किंतु यह साधना प्रौढ़ की अवस्था है। उत्तर स्थिति है। प्रारम्भिक अवस्था के साधक, उपासक मूर्ति रूप में प्रतीकोपासना का आधार लेकर ही कालान्तर में उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।
मूर्ति-पूजा की सार्थकता तभी है जब हम संबंधित महापुरुष, देव, तीर्थंकर आदि के गुणों का स्मरण करें, उनके दिव्य जीवन चरित्र संबंधी प्रसंगों का स्मरण करें। कम से कम जितने समय तक हम पूजा निमित्त अथवा दर्शन-वंदन हेतु अपने इश्ट की मूर्ति के पास रहें तब तक तो उनके गुणों का स्मरण होता रहे। यह स्मरण जितना प्रगाढ़ होगा उतना ही उपासक का अन्तर्बाह्य जीवन संस्कारित होता चला जायेगा। अपने इष्ट के सूक्ष्म परमाणु साधक के व्यक्तित्व में ओत-प्रोत होने लगेंगे।
मूर्ति-पूजा के लिए लंबा चौड़ा कर्मकाण्ड अथवा बहुत सारी महंगी पूजा सामग्री कोई खास महत्व नहीं रखती है। मनुष्य की भावना, उसका चिंतन स्मरण आदि मुख्य आधार हैं मूर्ति-पूजा के लिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पूजा सामग्री या विधि-विधान का कोई महत्व नहीं हैं। लेकिन केवल कर्मकाण्ड या सामग्रियों से ही पूजा पूर्ण नहीं होती इनके साथ-साथ भावना, श्रद्धा, समर्पण, गुणानुवाद आदि मुख्य आधार हैं। जिन पर मूर्ति-पूजा की सार्थकता टिकी हुई है। इसी लिए तो आगमवाणी में निर्देश है :
मेस्स्स सरिसवस्स य जत्तियमितंपि अंतरं गत्यं।
दव्वत्थयभावत्थय अंतरं तत्तिअं नेयं ।। जिस प्रकार मेरु पर्वत और सरसों में बहुत बड़ा अंतर है उसी प्रकार का अंतर द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा में जानना चाहिए।
अर्थात भाव-पूजा का स्तर मेरु पर्वत की तरह महान् और द्रव्य पूजा मेरु पर्वत के समक्ष एक सूक्ष्म सरसों के दाने के समान क्षुद्र है। बिना भावना के पूजा एक लकीर पीटना, यंत्र-चालित क्रिया जैसी है। चाहे उसका कितना ही बड़ा कर्म-काण्ड हो और कितनी ही विविधतापूर्ण सामग्री हो लेकिन भावना नहीं है, भक्ति नहीं है, प्रभु के गुणानुवाद नहीं हैं, तो ऐसी पूजा का कोई महत्व नहीं है। द्रव्य पूजा और भाव पूजा की फलश्रुति बताते हुए जिनवाणी में कहा गया है :
उक्कोसं दव्वत्थय आराहओ जाव अच्चुअं जाई।
भावत्थएण पावइ अंतोमहत्तेण निव्वाणं||
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति CALFornama