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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
इतिहास साक्षी है कि बादशाह अकबर का सबसे अधिक सार्थक उपयोग हीरविजयसूरि ने किया । वे अहिंसा और शांति के भारतीय संस्कृति के दूत के रूप में वहां प्रस्तुत हुए । उनके प्रभाव व प्रतिबोध ने अकबर की हीन व हिंसक मानसिकता को चमत्कारिक ढंग से परिवर्तित किया । आचार्य के अनुरोध पर बादशाह ने जैन परंपरा के पर्युषण पर्व व वैदिक परंपरा के विभिन्न पर्व-त्योहारों के निमित्त प्रतिवर्ष कुल 6 माह पर्यन्त जीव- हत्या पर रोक लगाई । स्वयं अकबर ने पर्युषण पर्व के दिनों में शिकार न करने की प्रतिज्ञा ली । खम्भात की खाड़ी में मछलियों के शिकार पर भी प्रतिबंध लगाया गया। जैन व वैदिक परंपरा के सभी तीर्थों का करमोचन किया गया । प्रतिदिन 500 चिड़ियों की जिह्वा का मांसभक्षण करने वाले इस शासक ने हीरविजयसूरि के परिचय के बाद फिर कभी ऐसा न करने का संकल्प लिया । उस काल में हिन्दू बने रहने के लिये दिया जाता 'जजिया' नामक कर आचार्य के कहने से अकबर ने बंद कर दिया । यह गौरवपूर्ण तथ्य है कि आचार्य के साथ वार्तालाप के पश्चात् अकबर सर्वत्र गोरक्षा का प्रचार करने के लिए सहमत हो गया । इस प्रकार मुगल काल में पहली बार हिन्दू प्रजा को अपने आत्म-सम्मान की अनुभूति हुई ।
आचार्य हीरविजयसूरि के मुगल बादशाह पर बढ़ते प्रभाव से कट्टरपंथी मुल्लाओं में हड़कंप मच गया था । जून सन् 1584 में अकबर ने हीरविजयसूरि को 'जगद्गुरु' की उपाधि देकर उनका राज-सम्मान किया । ईस्वी सन् 1582 से 1586 तक आचार्य ने फतेहपुर सीकरी व आगरा के आस-पास ही विचरण कर शहनशाह अकबर को बार-बार प्रतिबोधित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया । जैन परंपरा के ऐतिहासिक ग्रन्थ तो इन घटना-प्रसंगों का उल्लेख करते ही हैं, अकबर की सभा में उद्भट्ट विद्वान अब्बुलफ़जल ने भी इन बातों का विस्तार से वर्णन किया है । उसके अनुसार अकबर को हीरविजयसूरि ने सर्वाधिक प्रभावित किया । विन्सेण्ट स्मिथ ने अपनी कृति 'अकबर' में इन सारी बातों का प्रतिपादन किया है । 'आईनेअकबरी' नामक मुगलकानीन ऐतिहासिक ग्रन्थ भी उपरोक्त सारे तथ्यों की पुष्टि करता है । अकबर के इन अहिंसक कार्यों का उल्लेख अलबदाउनी ने भी किये हैं। 1585 ईस्वी में पुर्तगाली पादरी पिन्हेरो ने भी इनमें से अधिकांश बातों का समर्थन किया है ।
लोकश्रुति के अनुसार हीरविजयसूरि के जीवन-प्रसंगों के साथ बादशाह अकबर को प्रभावित कर देने वाली कई चामत्कारिक घटनाएं संबद्ध है, पर उनका कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है ।
ऐतिहासिक तौर पर यह उल्लेखनीय है कि एक वर्ष ईद के समय हीरविजयसूरि अकबर के पास ही थे । ईद से एक दिन पहले उन्होंने सम्राट से कहा कि अब वे यहां नहीं ठहरेगें, क्योंकि अगले दिन ईद के उपलक्ष्य में अनेक पशु मारे जायेंगे। उन्होंने कुरान की आयतों से सिद्ध कर दिखाया कि कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुंचता, वह इस हिंसा से खुश नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से खुश होता है । अन्य अनेक मुसलमान ग्रन्थों से भी उन्होंने बादशाह और उन्हें दरबारियों के समक्ष यह सिद्ध किया और बादशाह से घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी प्रकार का वध न किया जाय ।
प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में हीरविजयसूरि ने गुजरात लौटने से पहले धर्म-बोध देने के लिए प्रारंभ में अपने शिष्य उपाध्याय शांतिचन्द्रजी को तथा उनके पश्चात् उपाध्याय भानुचन्द्रजी को अकबर के दरबार में छोड़ा था । अकबर ने अपने दो शाहजादों सलीम और दर्रेदानियाल की शिक्षा भानुचंद्रगणि के अधीन की थी । अब्बुलफ़जल को भी उपाध्याय भानुचन्द्रजी ने भारतीय दर्शन पढ़ाया था । इन तथ्यों के समर्थन में बहुत सामग्री उपलब्ध होती है ।
अकबर ने आगरा का अपना बहुमूल्य साहित्य - भण्डार हीरविजयसूरि को समर्पित कर दिया था । बाद में आगरा के जैन संघ ने उसे संभाला । आज पुरातात्विक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण उस ज्ञानभण्डार की समस्त सामग्री गुजरात में कोबा सिथत श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में सुरक्षित है । वहां हीरविजयसूरि व आगरा के नाम से अलग विभाग बनाया गया है ।
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