Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 619
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन शेय ग्रंथ परिग्रह का प्रतिफल : I विश्व का सबसे बड़ा कोई पाप है तो वह परिग्रह है में संघर्ष चल रहा है । परन्तु पूंजीपति भी आपस में लड़ते हैं । परिग्रह को लेकर आज पूंजीपति एवं श्रमजीवी दोनों । वैसे ही श्रमजीवी भी । परिग्रही मानव की लालसाएं भी आकाश के समान अनन्त होती है । राज्य की लालसावश कोणिक ने सम्राट श्रेणिक को जेल मैं डाल दिया। कंस ने अपने पिता महाराजा उग्रसेन के साथ जो दुर्व्यवहार किया उसके मूल में यही मन की वितृष्णा काम कर रही थी । परिग्रह व्यक्ति को शोषक बनाता है। सभी क्लेश एवं अनर्थो का उत्पादक परिग्रह ही है । धनकुबेर देश अमेरिका जो भौतिकवाद का गुरु परिग्रहवाद का शिरोमणि है। अपने अर्थ तंत्र के बल पर सारे विश्व पर हावी होने का स्वप्न देख रहा है। परन्तु वहां पर भी आन्तरिक स्थिति वैसी है। इसी परिग्रही वृत्ति के कारण वहां के करोड़ों लोग मानसिक व्याधियों से संत्रस्त है लाखों का मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं, अपाहिजता, पागलपन आदि बीमारियां फैली है। छोटे बच्चों में अपराधों की संख्या अधिक पाई जाती है। इसका मूल कारण फैशनपरस्ती तथा संग्रह की भावना रही है। तकनीकी युग में उपकरण जुटाये जा रहे हैं। नई नई सामग्रियों का उत्पादन बढाया जा रहा है । रहन सहन के स्तर को बढ़ाने का नारा लगाया जा रहा है । किन्तु मानसिक स्थिति उलझनों तनावों से परिपूर्ण पेचीदा बन गई है । वैचारिक संघर्ष भी बढ़ रहा है । वह भी एकान्तवाद का जनक है । इन सब आपाध पों से मुक्त होने का कोई उपाय है तो वह अपरिग्रहवाद की शरण है । अपरिग्रह का सिद्धान्त सर्वोपरि है और यही आजके युग का धर्म है । I अपरिग्रह का अर्थ : अपरिग्रह का अर्थ है जीवन की आवश्यकताओं को कम करना, लालसाओं मूर्च्छा एवं ममता का अंत ही अपरिग्रहवाद है । भीतर एवं बाहर की संपूर्ण ग्रंथियों के विमोचन का नाम ही अपरिग्रहवाद है । अपरिग्रहीवृति व्यक्ति, राष्ट्र जाति विश्व राज्य आदि सभी के लिये आनंददायिनी और सुखशांति के लिये वरदान स्वरूप है। यह संसार में फैली विषमता, अनैतिकता संग्रह एवं लालसा के अंधकार को दूर करने में सक्षम है। निर्भयता का यह प्रवेश द्वार है । अपरिग्रह दर्शन आज के युग में वर्ग संघर्ष, वर्गभेद भवनों की जड़े हिलाने के लिये अनिवार्य है। सामाजिक, राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय धार्मिक आदि सभी की उन्नति के एवं क्रांति के लिये अपरिग्रहीवृत्ति की नितान्त आवश्यकता है । अपरिग्रह का आदर्श है जो त्याग दिया सो त्याग दिया । पुनः उसकी आकांक्षा न करे । अपने को सीमित करें । इसी आदर्श को लेकर जैन परंपरा से अपेक्षा दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं - 1. श्रमण (साधु) 2 श्रावक (गृहस्थ ) दोनों की अंतर्भावना ममता एवं मूर्च्छा का त्याग करना ही है। दोनों का मार्ग एक ही है किन्तु साधु संपूर्ण आत्म शक्ति के साथ उस मार्ग पर आगे बढ़ता है और गृहस्थ यथाशक्ति से धीमे धीमे कदम बढ़ाता हैं । साधु मुनि दीक्षा लेते समय अंतरण परिग्रह मिथ्यात्व आदि का तथा बाल परिग्रह घर परिवार धन संपत्ति आदि का परित्याग करता है । गृहस्थ भी संपूर्ण रूप से नहीं किन्तु इच्छानुसार परिग्रह का परिमाण अर्थात मर्यादा करता है । संपूर्ण रूप से अपरिग्रही बनना गृहस्थ के लिये असंभव है, क्योंकि उस पर समाज का परिवार का राष्ट्र का उत्तरदायित्व है । फिर भी आवश्यकता के अनुसार मर्यादा का, वह अपरिग्रह का संकल्प कर सकता है । 1 परम पूज्य तीर्थोद्धारक श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा रचित ग्रंथ में अपरिग्रह को जीवन का दर्शन निरूपित करते हुये वर्तमान युग में उसके महत्व को प्रतिपादित किया है। उसका संदेश ग्रहण करने पर अपनी आवश्यकता कषायों से मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य के सुखी रहने के दो उपाय है कम करो तथा वर्तमान के यथार्थ को स्वीकार कर और और से मुक्त रहो । estion हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 127 हेमेकर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति

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