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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
क्षमा मेरी है
साध्वी क्षमाशीलाश्री
'क्षमा वीरस्य भूषणम्' एक बार यह वाक्य संस्कृत पुस्तक पढ़ते पढ़ते पढ़ा तब मेरे मन में इच्छा हई कि क्यों न मैं वीर बनूं । मेरे जीवन में यह गुण अवश्य आना चाहिये और उसी दिन से मैंने मेहनत की और मेरे जीवन में इस गुण का प्रवेश हुआ । माता पिता आदि घर के बुजुर्गों ने देखा और फिर मुझे दीक्षा की आज्ञा दी । दीक्षा लेने के बाद मेरे परम उपकारी गुरुदेव ने मेरा नाम 'क्षमाशीलाश्री रखा । तब से मैंने अपने नाम को सार्थक करने का और अधिक प्रयास किया । गुरुवर भी मेरी गृहस्थ अवस्था और संयम अवस्था में बदलाव देखकर खुश हुए । मेरा गृहस्थी का नाम 'अनीता था यानि कि नीयत बिना की और क्षमा वाली बन गई।
यति धर्म के दस भेद में भी क्षमा पहला भेद है । चार कषायों में भी क्रोध की विरोधी क्षमा पहली है । इस दुनिया में आप क्रोध करके दूसरे को डरा धमका कर आते हैं और फिर मानते हैं कि हमारी जीत हुई, मगर हकीकत में देखें तो (आत्मादृष्टि से देखें) आपकी हार होती हैं । क्योंकि कषाय जो आत्मा से अलग है उसने अपना जोर लगाया और आप उसके वश में आ गये । क्रोधी व्यक्ति के सामने कोई कुछ नहीं बोलते है मगर पीछे से इस भव में बहुत गालियां देते हैं और भवोभव तक अशुभ कर्म का बंध कराते हैं । स्वयं तो कर्म बांधता हैं मगर दूसरे भी उसकी निंदा आदि करने से कर्म बांधते हैं ।
इससे तो अच्छा, इसका विरोधी, क्रोध का सच्चा हितकारी मित्र 'क्षमा' है । जिस व्यक्ति ने भी इसे जीवन में उतारकर रखा हैं उसने बहुत बार अपनी गलती नहीं होने पर भी कोई कहे तो सुन लेता है । कोई कलंक लगावे, निंदा करे तो भी चुपचाप सहन कर लेता है । परन्तु पलट कर जवाब नहीं देता, इस तरह वह व्यक्ति महान होता है ।
इसको देखकर बाकी सभी लोग भी इस गुण को धारण करे और इसकी अनुमोदना करे, इसी तरह की परम्परा चले तो फलस्वरूप क्षमावान बनते हैं ।
वीर प्रभु के कान में खीला लगाया गया तब और मेतारज मुनि के ऊपर सुनार ने चोरी का कलंक लगाया तब उन्होंने क्षमा रखी तो उसी भव में उन्होंने कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया । अगर आपको भी यह सरल और सुन्दर आनन्द की अनुभूति वाले गुण को अपनाना हो तो अपने आत्मा में ही हैं खोलकर देखले । और ग्रहण कर लो । एक भी रुपया पैसा नहीं लगता हैं | दुनिया में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो मुफत मिलती हों । परन्तु आत्मा के सभी गुण मुफ्त मिलते हैं । मगर इन्द्रियों के विषय से दूर रहना पड़ेगा, यही इस आत्मगुण का मूल्य हैं । आपने स्वयं ने क्षमावान व्यक्ति को मिलने वाले लाभ को देखा होगा । इसलिए चलिये मैं अपने नाम को सार्थक बनाने और आप आत्मिक गुण के प्रगटाने के लिए इस गुण को स्वीकार करते हैं ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 116हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
मेला आयोति कलव्याख्याता
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