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श्री
राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
संयम जीवन का सुख
साध्वी पुनीतप्रज्ञाश्री
आपको दुनिया में हैरान करने वाले दुःखों से बचना है? बंधन से मुक्ति चाहते हो? परतन्त्रता से स्वतन्त्रता पाना चाहते हो? तो वीतराग के बताए हुए उपाय को जो मैंने ग्रहण किये हैं, उसे आप देखिये ।
अहो ! मैं कितनी भाग्यशाली हूं कि मुझे राष्ट्रपति के दर्शन नहीं लेकिन तीन लोक के नाथ जिनेश्वर भगवन्त के दर्शन व शासन मिला। मैं कितनी ग्रेट हूं आपको मिला है? आपने ग्रहण किया हो तो आप भी ग्रेट हो । इतना ही नहीं बल्कि मुझे तो उनकी आज्ञा पालन का भी लाभ मिला है। आप ग्रेट हो तो मैं ग्रेट से भी ग्रेट हूं। आपको संसार में घूमने जाने में मजा आता हैं। वह सब आनन्द यहां पर फी ऑफ चार्ज' बिना मेहनत किये, बिना मांगे सहज ही मिलता हैं । इतना ही नहीं बल्कि साथ में लाभ भी होता हैं । आपको तो पैसा आदि खर्च करना पड़ता है और साथ ही साथ रागद्वेष करके कर्मबंध भी होता है नुकसान ही नुकासन है हैं ना? सोचो
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हमें खाते, पीते, काप (कपड़ा धोते) निकालते, पात्रा साफ करते, काजा (झाडू) निकालते पुस्तकों की पड़िलेहण (साफ-सफाई) करते समय आदि सभी कार्यों में कर्म की निर्जरा ही होती हैं । और आप खाओं पीओं, कपड़ा बर्तन आदि साफ करो तो उसमें कर्म बंध ही है ।
कितनी मस्त अद्भुत आनन्द की बात है 'समर्पण (आज्ञा पालन भाव)। जो कुछ भी गुरुदेव कहें 'तहति' 10 रोटी खालो 'तहति' अकेले को वहां जाना है 'तहति तुमको एक वर्ष तक दूसरो की सेवा में रहना होगा 'तहति' । इस 'तहति' शब्द में इतनी शक्ति है कि कायर को बलवान, अज्ञानी को ज्ञानी, अनपढ़ को पंडित, जिसे बोलना नहीं आता हो उसे वाचनाचार्य बना देता है। यह एक प्रकार का मन्त्र है। इससे गुरु की अनन्य कृपा प्राप्त होती हैं। क्या खाना, कब खाना, कब पढ़ना, कब बोलना, सोना आना-जाना कुछ भी चिन्ता नहीं । एकासणा करना या उपवास, गुरु कहें वह करना एक क्षण भी विचार करने में सोचने में व्यर्थ नहीं आराम से, स्वतन्त्र रूप से, किसी समर्पण भाव को । भी प्रकार के टेन्शन बिना जीवन जीने की कला चाहिये तो ग्रहण कीजिये
आपको तो यह कहां से मिले? बाहर जाऊं या नहीं, यहां कमाई करूं या वहां, यह पकाऊ या वह यह साड़ी खरीदूं या वह सब बातों में पराधीन होना पड़ता है ।
कितने ही गरीब व्यक्ति होते हैं, लेकिन जब वे भगवान की आज्ञा में आते हैं तो सब उन्हें नमन करते हैं। जैसे संप्रति राजा । घर के व्यक्ति ही नहीं, स्वजन, राजा सेठ, आदि सभी सेवा में हाजिर हो जाते हैं । कोई भी स्थान पर लाखों की भीड़ में सौ रुपये का टिकिट होने पर भी साधु-साध्वी भगवंत को आगे बुलाया जाता हैं । सामने से बुलावा आता हैं । घर में मेवा-मिठाई रोज नहीं खाते होंगे, कभी लाई हो या आई हो फिर भी म.सा. को पहले । सेठ लोग गद्दी से उठकर झुक जाते हैं ।
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फिर भी आश्चर्य की बात हैं कि इतना मिलने पर भी संतोष सबसे बड़ा गुण हैं। जीवन को सुखी बनाने वाला हैं चाहे कुछ भी मिले या न मिले इनाम, मान सम्मान, प्रभावना, स्कूल में रेंक आदि न मिलने पर भी संतोष शांति है। मिले तो दुर्ध्यान नहीं होने देता। हमें भी गोचरी, उपाश्रय, हवा पानी आदि मिले या नहीं मिले संयम आराधना होगी और न मिले तो परिषह सहन करने को मिलेगा लाभ ही लाभ है। आप भी जीवन में 'संतोष' गुण को अपनाकर देखिये फिर सुख हैं या नहीं सो विचारे । ।
आजकल टेन्शन सबसे बड़ी बीमारी हैं, जो मात्र साधु जीवन में ही नहीं है । मन हो तब अपने दो पात्र लेकर चले, मन हो तब लाकर खालें, मन हो वहां महल या जंगल स्थान पर पड़ाव डाल दिया। आगे पीछे कुछ देखना नहीं, परिग्रह जैसा कोई धन नहीं है हमारे पास । फिर भी सुखी । क्योंकि चिंतामणि रत्न समान चारित्र रत्न हैं हमारे पास। जिसका मूल्य आपकी संसारी कोई भी वस्तु नहीं आंक सकती हैं । खाने पीने की एक भी दिन की सामग्री नहीं हैं, फिर भी लाखों लोग मिष्ठान्न बहोराने के लिए हैं अर्थात संतोष होने की वजह से मात्र कम से कम द्रव्य में आनन्द हैं। आप भी इस व्यावहारिक सुख को चाहते हो तो अवश्य चारित्र रूपी चिंतामणि रत्न को ग्रहण करें। वास्तविक सुख तो अपने आत्मा में ही हैं। बाहर जो सुख ढूंढते हो वह तो नाशवन्त है। क्षणिक है । इति ।
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