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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
पालना संभव नहीं । अन्तोत्गत्वा दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। हम इन्हें एक दूसरे के पर्याय मान सकते हैं ।
जीवन की सद्वृत्तियों तथा मानव मूल्यों का विकास करना ही धर्म का प्रमुख उद्देश्य है । मूल्य न तो आरोपित किये जा सकते हैं, और न सामग्री की भांति हस्तांतरित ही किये जाते हैं । मूल्य तो मन के संस्कार हैं । अतः हमें मन को ही। कषायों या विकारों से बचाना होगा । ये मूल्य ही भारतीय संस्कृति या श्रमण संस्कृ ति के मूलाधार है, इसलिए हम सब समवेत स्वर में कहते हैं कि धर्म ही व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के हितों को सुरक्षित रखने का ब्रह्मास्त्र है । धर्म की आत्मा नैतिकता है और नैतिक नियम सभी धर्मों में एक समान है । इसलिए धर्म सर्वोपरि सर्वोच्च एवं सवोत्कृष्ट है । आइए । हम सब इसका पालन करने में मन से जुट जावें और श्रद्धालु श्रावकों को भी इससे जोड़े ।
इस स्थिति को लाने, वर्तमान भौतिकवादी भूख एवं व्यवस्था को बदलने, पाश्चात्य के प्रभाव से अनुप्राणित अपसंस्कृति हो हटाकर युवा शक्ति को सुरक्षित करने के लिए हम धर्म पर पूर्ण विश्वास रखें । जैनत्व में प्रदूषण लाने वाली प्रवृत्ति से बचें। कषायों पर अंकुश लगावें । तृष्णा नहीं बढ़ने दें। सेवा-वृत्ति को अपनाएं सदैव संवेदनशील, क्षमाशील एवं सहिष्णु बनें व बनावें ।
मालवतीर्थ मोहनखेड़ा
मोहनखेड़ा मृत्युंजयं से, सचमुच खेल रहा है । शत्रुंजय की शाश्वत आभा, अनवरत उँढ़ेल रहा है ।। इसके कण कण में व्याप्त विजय राजेन्द्रसूरि की शक्ति । हर स्वर हर ध्वनि के अलाप में, बहती मोहन की मस्ती ।। इसकी दिव्य कल्पनाओं में, रमते यतीन्द्र सूरीश्वर । श्रृंगारिक उपकरणों में दिखते, विद्याचन्द्र सूरीश्वर ।।
तो, मालव तीरथराज सुमेरु, फूला फेल रहा है ।। मोहनखेड़ा मृत्युञ्य इसलिए कि मृत्यु की महिमा यहाँ घटी है । अमर आत्माओं के पीछे, मृत्यु स्वयं मिटी है ।। शत्रुंजय की आभा अद्भुत, बाबा लेकर आया । आदिनाथ के ऋषभ रूप में, मनवांछित
फल पाया ।।
तो, यह तीरथ, निर्मल दर्पण सा, परछाई झेल रहा है ।। मोहनखेड़ा
जहाँ मोक्षगामी पथ राही, समवसरण' करते हैं । दिव्य भाव से जागृत मानव, वहाँ नहीं मरते हैं ।। मिट्टी का उपचार जहाँ, 'मोहन' की मृत्यु गला दे । वह मृत्युञ्जय शत्रुंजय है, जो पाप शाप जला दे ।।
तो, वर्षीतप का सफल पारणा, फल संकेल रहा है ।। मोहनखेड़ा
ओ, जैनाकाश सजाने वालों, तीर्थाधिराज को देखो । इस पारस को छूकर अपना, लेखा जोखा .... पेखो || चुम्बक सा आकर्षण 'लहरी' सहज खींच लाता हैं । मानव, मनमंदिर में आकर, स्वयं मोक्ष पाता है ।। तो, राजेन्द्र ज्योति का अमर उजाला, आनन्द डौल रहा हैं । मोहनखेड़ा मृत्युंजय से, सचमुच खेल रहा हैं ।।
सोहनलाल 'लहरी', खाचरौद (म. प्र.)
शत्रुंजय की शास्वत आभा, अनवरत उँढ़ेल रहा ... हैं ।।
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
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