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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में वर्णित कुरुक्षेत्र
डॉ. धर्मचन्द्र जैन पूर्व वैदिककाल में उत्तरवेदी से प्रख्यात, ब्रह्मप्रिय स्थल कुरूक्षेत्र भारतीय संस्कृति विशेषकर अध्यात्मवाद से अधिक सम्बद्ध रहा है । इसी वसुन्धरा पर निवास कर अनेकानेक ऋषि-महर्षियों एवं साधु-सन्तों ने तपसाधना के उत्कर्ष पर मुक्तिलाभ किया है । वेद, पुराण एवं उपनिषदों की रचना, श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश और ऐतिहासिक महाभारत युद्ध भी इसी भूखण्ड पर हुआ बतलाया जाता हैं । वैदिक धर्मदर्शन के प्रकृत केन्द्र स्थल कुरुभूमि पर ब्राह्मणेतर दर्शनों को भी समुचित सम्मान प्राप्त था ।
कुरुजन जिस भूभाग पर निवास करते थे वह क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा होगा, जैसे कि इतिहासज्ञ भी मानते हैं कि कुरुराष्ट्र 300 योजन में फैला हुआ था - तियोजन सतेसुकुरुरटे । महाभारत के अनुसार भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम में स्थित सरस्वती और दक्षिण पूर्ववर्ती दृषद्वतीनदी का मध्यभाग कुरुराष्ट्र, कुरुजनपद अथवा कुरुक्षेत्र कहलाता था । यह भूखण्ड घने जंगल से घिरा हुआ था, इसीसे इसे कुरुजाङगल से भी जाना जाता था । निश्चित ही यह प्रदेश बड़ा पवित्र और रमणीय था, जहां देवगण भी निवास करने के लिए लालायित रहते थे । इसी कारण मनीषि साधकों के लिए तत्त्वज्ञान का प्रमुख स्थल स्वरूप यह भूमि ब्रह्मसदन, ब्रह्मावर्त, देवभूमि, मुक्तिधाम, समन्तपंचक एवं कुरुतीर्थ इत्यादि नामों से उल्लिखित है । कालान्तर में आज यहां कुरुक्षेत्र स्थाणवेश्वर (थानेसर) के रूप में दृष्ट है । कुरुक्षेत्रं तु देवर्षे स्थाणुर्नाम महेश्वरः तदेवतीर्थमभवत् । जैन वाङ्मय में कुरुक्षेत्र :
विविधतीर्थकल्प के अनुसार जैन आद्यतीर्थंङकर नाभिपुत्र भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में एक कुरुनाम का पुत्र था। आचार्य जिनसेन के मन में इन्हीं का अपरनाम सोमप्रभ था जो कुरुवंश के शिखामणि थे- सोमप्रभः प्रभोराप्त कुरुराजसमाह्वयः ।
कुरूणामधिराजोऽभूत कुरुवंशशिखामणिः ।। महामण्डलेश्वर महाराज कुरु ने अपने उग्रतप से जिसधरा को पवित्र किया था, वह क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र अथवा कुरुराष्ट्र कहलाने लगा - कुरूनाभेणं कुरूश्क्तिं पसिद्ध । इन्हीं कुरुराज के पुत्र हस्ति ने ही हस्तिनापुर नगरी को बसाया था जो कुछ समय बाद कुरुप्रदेश की राजधनी बनी ।
उत्कृष्ट योगचर्या के संधारक, केवली, अरिहन्त, भगवान ऋषभदेव ने इसी कुरुर्जागल की अलंकारभूत महानगरी हस्तिनापुर में ही महाराजाधिराज सोमप्रभ तथा कुरुनन्दन पुत्र श्रेयांस के करकमलों से प्रासुक इक्षु रस का प्रथम आहार ग्रहण किया था -
श्रेयान सोभप्रभेणामा लक्ष्मीमत्याचसादरम् | रसभिक्षोरदात् प्रासुमुत्तानीकृतपाणये ।। इस प्रकार प्राचीन तीर्थ हस्तिनापुर से मण्डित कुरुप्रदेश कर गौरव अधिक वृद्धिगत होता है ।
बृहत्कल्पसूत्रभाष्य तथा आदिपुराण में वर्णित पच्चीस आर्यदेशों में कुरु भी एकदेश बतलाया गया है जो भारत के उत्तर पश्चिम में स्थित था । स्थानांगसूत्र में इसी कुरुदेश को पुण्यभूमि कहा गया है - अकर्मभूमिविशेषः । श्रावस्ती से लेकर गंगा तक कर प्रदेश कुरुजनपद कहलाता है जहां तीर्थडकर वृषभदेव ने तपश्चरण का अधिकांश समय व्यतीत किया था"। जैनागमों के अनुसार इस कुरुभूमि पर अन्य तीर्थंकरों का भी विहार एवं धर्मोपदेश हुआ था किन्तु किन-किन अरिहन्तों का विचरण हुआ यह स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।
बौद्ध वाङमय में कुरुक्षेत्र :- निकायग्रन्थों में प्रायः कुरुक्षेत्र शब्द नहीं मिलता । प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में कुरुजाङगल, कुरुजनपद, कुरुदेश, कुरुराष्ट्र और उत्तरकुरु ये कुछ एक शब्द मिलते हैं जिनसे कुरुदेश अथवा कुरुक्षेत्र के अस्तित्व का बोध होता है । महाभारत में अनेक स्थलों पर कुरुक्षेत्र का उल्लेख मिलता है जिनके अनुसार जो कुरुदेश, कुरुजाङगल और कुरुक्षेत्र इन तीन भागों में विभक्त था ।
(संस्कृत एवं प्राच्यविद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र)
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