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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
महाभारत काल में भारत में स्वतन्त्र चौदह राज्य थे और भगवान बुद्ध के समय में सोलह स्वतन्त्र गणराज्यों की गणना की गयी है ।" अङगतरनिकाय में जिन जनपदों के नामोल्लेख हैं उनमें नौवें स्थान पर कुरुजन पद आता है । जैनागमो से भी इसकी पुष्टि होती है । कुरुषु पांचालः अथवा कुरुपांचालेसु यह युगलपद दिखलाता है कि किसी समय पस्वाल देशका उत्तरी भाग कुरुराष्ट्र में शामिल था । सम्भवत इसी कारण बौद्ध वाङ्मय में काशी कोसल तक कुरुदेश की सीमा परिगणित की गयी है।
__कुरुजनपद के दो प्रमुख निगमों थुल्लकोट्टित” । वर्तामान थानेसर । और कम्मासदम्म (वर्तमान ग्राम कुमोदा) में सम्कय सम्बद्ध गौतम बुद्ध ने स्वयं विहार कर कुरुवासियों को सतिपट्ठान" (स्मृति प्रस्थान) का सद्धर्मामृतपान कराया था । निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र भगवान् महावीरस्वामी किसी भी समय इस कुरुभूमि में पधारे हों, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। निश्चिन्त एवं खुशहाल कुरूजन :
कुरुजनों का जीवन सुखमय तथा निश्चिन्त था। इनकी अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती थी । इनकी अपनी पृथक पृथक् पत्नियां भी नहीं होती थीं । अपने निर्वाह हेतु ये अधिक परिश्रम भी नहीं करते थे कारण कि उपजाऊ कुरुभूमि में अनाज स्वतः ही उत्पन्न हो जाता था । सदाचरण ही इनका परमधर्म था ।
यही कुरुधर्म भी था जिसका अर्थ है नैतिक मर्यादा । इस प्रकार कुरुजनों का जीवन सीधा-सादा, सरल, पवित्र और नैतिक मर्यादा पूर्ण था जिसे आज भी यहां के लोगों में देखा जा सकता है । विद्यमान कुरुक्षेत्रवासियों का सादा जीवन यापन पवित्र और खुशहाल है, वे धनधान्य सम्पन्न हैं - परिपुण्णकोट्ठागारं तथा परिश्रम से अपना जी कभी नहीं चुराते । इनका आचरण अहिंसामय है । उत्तरकुरू और कुरुक्षेत्र :
भूविज्ञान के अध्येताओं के लिए उत्तरकुरु आज भी खोज का विषय बना हुआ है । जैन एक विशाल जम्बूद्वीप की सुन्दर कल्पना करते हैं, जो चारों ओर से लवण समुद्र से घिरा हुआ है । जम्बूद्वीप के उत्तरी भाग में ऐरावत और दक्षिण में भरतवर्ष ये दो कर्मभूमियां हैं । इन दोनों के मध्य में सुमेरु पर्वत है । जिसका अस्तित्व सभी दार्शनिक स्वीकार करते हैं । इसी सुमेरु पर्वत के पूर्व में देवकुरु और पश्चिम में उत्तरकुरु विद्यमान है । ये देव भूमियां है। इन्हीं के दोनों ओर का क्षेत्र विदेहक्षेत्र कहलाता है - भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमियोऽन्यत्रदेवकुरूतरत्कुरुभ्यः । जबकि बौद्धों के मतमें यह समस्त पृथ्वी चार महाद्वीपों-जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु, में विभक्त है।
महाभारत के भीष्मपर्व में भी सुमेरु के चारों ओर अवस्थित चार महाद्वीपों का वर्णन मिलता है जिनमें से दो उत्तरकुरु और जम्बूद्वीप पालिनिकायग्रन्थों की परम्परानुकूल है किन्तु बौद्ध साहित्य में मान्य अपारगोदान के स्थान पर केतुमाल और पूर्वविदेह के स्थान पर भद्राश्व नाम मिलते हैं । इस प्रकार जो कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित ही है कि उत्तरकुरु एक दूरस्थ महाद्वीप रहा होगा जो सुमेरु के उत्तर-पश्चिम में स्थित था । इसी कारण ऐतरेय ब्राह्मण में से हिमालय से परे बतलाया गया है। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल तथा डॉ. हेमचन्द्र रायचौधरी आधुनिक साइबेरियन प्रदेश को उत्तरकुरु मानते हैं । पाश्चात्य विद्वान जिमर वर्तमान कश्मीर के इलाके को ही उत्तरकुरु बतलाते हैं । जबकि बौद्ध विद्यामनीषि डॉ. मलशेखर ऋग्वेदकालीन उत्तरकुरु में ही अपनी अटूट श्रद्धा अभिव्यक्त करते हैं | आचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोशभाष्य में बतलाया है कि मेरु के उत्तर पार्श्व के सन्मुख कुरु अथवा उत्तरकुरु की आकृति आसन के तुल्य है यह चतुरस्र अर्थात चारों पावों के समान परिमाण में 2000 योजन विस्तृत है ।
निकायग्रंथ उत्तरकुरुवासियों के जीवन पर कुछ और अधिक जानकारी प्रस्तुत करते हैं। अङगुतरनिकाय और मज्झिमनिकाय की" अट्ठकथाओं में बतलाया गया है कि उत्तरकुरु में एक कल्पवृक्ष है जो कालपर्यन्त रहता है । थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार यहां के निवासियों का अपना घर नहीं होता, वे भूमि पर सोने के कारण भूमिसया
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