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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
गुरु के प्रति समर्पित मुनिश्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा.)
-मुनि चन्द्रयशविजय रतलाम नगर मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण नगर है। यातायात की दृष्टि से रेलवे का महत्वपूर्ण जंक्शन है और उत्तर भारत से दक्षिण को जोड़ता है। वैसे तो इस नगर में सभी जाति और धर्म के लोग निवास करते हैं, किंतु जैन मतावलम्बियों की दृष्टि से इस नगर का विशेष महत्व है। जैन मत के सभी वर्ग के लोग यहां निवास करते हैं और इस कारण सभी समुदायों के आचार्यों/मुनिराजों/साध्वियों का यहां सतत् आवागमन बना रहता है। इससे यहां जैन धर्म की अच्छी प्रभावना होती है।
इसी रतलाम शहर में श्रीमान् विजयकुमारजी मादरेचा की धर्मपत्नी सौ. भाग्यवंती बहन की पावन कुक्षि से कार्तिक कृष्णा नवमी, संवत् 2034, दिनांक 20 अक्टूबर 1977 को एक सुन्दर सलोने पुत्ररत्न का जन्म हुआ। माता-पिता ने अपने इस सद्यप्रसूत पुत्ररत्न का नाम रखा नरेशकुमार। समय के प्रवाह के साथ बालक नरेशकुमार भी बढ़ने लगा और यथासमय अध्ययन के लिये माता-पिता ने अपने लाडले पुत्र नरेशकुमार को स्थानीय विद्यालय में भर्ती कराया। इस प्रकार नरेशकुमार की प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ हुई।
चूंकि घर का वातावरण धार्मिक था, इस कारण व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षण भी प्रारम्भ हुआ। माता-पिता के साथ नरेशकुमार रतलाम में पधारने वाले मुनिराजों/साध्वियों के दर्शन करने और प्रवचन पीयूष का पान करने के लिये जाने लगा और इसका प्रभाव नरेशकुमार के जीवन पर भी पड़ने लगा। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् माध्यमिक स्तर का अध्ययन समाप्त होने को था कि माता-पिता के साथ नरेशकुमार को परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के दर्शन-वंदन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रथम दर्शन में ही नेरशकुमार का मन आचार्यश्री के चरणों में समर्पित हो गया।
नरेशकुमार को कुछ समय तक आचार्यश्री की सेवा में रहने पर मानव भव की महत्ता एवं उसकी क्षण भंगुरता का ज्ञान हुआ और साथ ही आत्म कल्याण करने की भावना भी जागृत हो गई। हृदय में वैराग्य भावना अंकुरित हो उठी। परिणामतः धार्मिक अध्ययन प्रारम्भ कर दिया और फिर एक दिन आचार्यश्री ने मुमुक्षु नरेशकुमार की वैराग्य भावना को परिपक्व जानकर श्री शंखेश्वर तीर्थ की पावन भूमि पर सं. 2051 फाल्गुन कृष्णा द्वितीया, दिनांक 27-2-1994 को दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनि प्रीतेशचंद्रविजयजी म. के नाम से अपना शिष्य घोषित किया। दीक्षोपरांत मुनिराजश्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म. का धार्मिक अध्ययन और बढ़ गया। साथ ही आप अपने गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की सेवा में दत्तचित्त हो गए।
दीक्षोपरांत दो-तीन वर्ष अध्ययन और गुरुदेव की सेवा में व्यतीत हो गए। फिर एक दिन एकाएक आपके मानस पटल पर अपने गुरुदेव की दीर्घ दीक्षा पर्याय के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके श्रीचरणों में समर्पित करने के विचार उत्पन्न हुए। वरिष्ठ मुनिराजों, विशेषकर ज्योतिषसम्राट मुनिराजश्री ऋषभचंद्रविजयजी म. से इस संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करने के लिये आग्रह किया। अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय हुआ और उस पर कार्य भी प्रारम्भ हो गया। अभिनंदन ग्रन्थ के लिये आवश्यक सामग्री का संकलन भी हो गया किन्तु इसी बीच आचार्यश्री का चातुर्मास राणी बेन्नूर (कर्नाटक) में हो जाने से अभिनंदन ग्रंथ की प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसके बावजूद दक्षिण भारत के अपने प्रवास में मुनिराज इस दिशा में सक्रिय बने रहे और अभिनंदन ग्रन्थ की कमियों को पूरा भी करते रहे। अभिनंदन ग्रंथ के लिये आवश्यक चित्रों का संग्रह भी करते रहे। राणी बेन्नूर, चेन्नई, राजमहेन्द्री के वर्षावासों में अभिनंदन ग्रंथ की सम्पूर्ण सामग्री को आपने अंतिम रूप दे दिया और छपाई के लिये सामग्री प्रेस को सौंप दी।
काकीनाड़ा (आ.प्र.) के वर्षावास के प्रारम्भ में प्रस्तुत अभिनंदन ग्रंथ को अंतिम रूप दिया जा चुका था। इस अभिनंदन ग्रंथ के लिये जिस श्रद्धा, लगन, निष्ठा और समर्पण भाव से कार्य किया, उसी का परिणाम था कि काकीनाड़ा में इसे अंतिम रूप देकर उसके लोकार्पण की तिथि भी निश्चित कर दी गई थी, किन्तु नियति को शायद यह स्वीकार नहीं था और उसी समय एकाएक दिनांक 29-8-2002 को मुनिराज श्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म. का स्वर्गवास हो गया। सब कुछ धरा का धरा ही रह गया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। समझ ही नहीं पाये कि आगे क्या किया जाये? अब उनकी अनुपस्थिति में प्रस्तुत अभिनंदन ग्रंथ उनकी भावना के अनुरूप ही प्रकाशित करवाकर पू. आचार्यश्री के श्रीचरणों में समर्पित किया जा रहा है।
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