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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
परमारों के पतन के बाद मालवा दिल्ली के सुलतानों के आधीन रहा। दास वंश के समापन के बाद क्रमशः खिलजी और तुगलक शासक दिल्ली के सुलतान बने । तुगलक काल में माण्डू के सुलतानों के आधीन मालवा स्वतंत्र हो गया
दिलावरखाँ गोरी सन् 1930 ईस्वी सन् 1401 तक तुगलकों के आधीन मालवा का सूबेदार रहा । महमूद तुगलक द्वितीय के मालवा से बिदा होने पर दिलावरखाँ ने सन् 1401 ईस्वी में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । इस तरह मालवा स्वतंत्र हो गया । धार अभी भी मालवा की राजधानी था परंतु दिलावरखाँ को शादियाबाद (मांडू) अधिक प्रिय था और इस कारण मांडू को सहसा बड़ा महत्व मिल गया । दिलावरखाँ सन् 1405 ईस्वी तक स्वतंत्र मालवा का शासक रहा। यह वह समय था जबकि मालवा में पर्याप्त मात्रा में जैन परिवार आ गये थे । उन्हें इसलिये मालवा आकर्षक लगा क्योंकि दिलावरखाँ ने उन्हें जान और माल की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त किया था। दिलावरखाँ को इस समय धन की अत्यधिक आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति ये जैन परिवार ही कर सकते थे।
दिलावरखी गोरी के समय जैन धर्म पुनः विकास की राह पर चल पड़ा। पाटन के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठी पेथडशाह के एक संबंधी संघपति झांझण को मालवा में उच्च राजनीतिक पद मिला था । यह व्यक्ति सोमेश्वर चौहान के मंत्री जालोर के सोनगरा गोत्रीय श्रीमाल आभू का वंशज था" ।
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दिलावरखाँ के समय तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाएं बनाई गई थी। सन् 1401 ईस्वी की एक अभिलेखयुक्त पार्श्वनाथ की पीतल की प्रतिमा आज भी उज्जैन नमकमंडी जिनालय में देखी जा सकती है ।
होशंगशाह गोरी
इसका मूल नाम अलपखाँ था। इसका शासन काल 1406 से 1435 ईस्वी माना जाता है। जैन ग्रन्थों में इसे आलमशाह भी कहा गया है । होशंगशाह के समय में जैन धर्म काफी पनपा । इसके समय में पेथड़ (बीका) का पुत्र झांझण दिल्ली से नाडूलाई होता हुआ पुनः मालवा में आया । झांझण के छः पुत्र थे जिनके नाम चाहड़, वाहड़, देहड़, पदमसिंह, आल्हू और पाल्हू थे। होशंगशाह इन सबको सम्मान की दृष्टि से देखता था । चाहड़ के चन्द्र । और खेमराज नामक दो पुत्र थे। बाहड़ के दो पुत्र समंधर और मंडन हुए मंडन होशंगशाह के समय एक विशिष्ट नाम था। उसे मंत्रीश्वर कहा गया है क्योंकि वह महाप्रधान के पद पर था। वह बड़ा कुशल राजनीतिज्ञ तथा विद्वान् साहित्यकार था" । झांझण का तीसरा पुत्र देहड़ था । देहड़ के पुत्र का नाम धनपत्य या धनराज था। होशंगशाह के समय मंडन के इस सुयोग्य चचेरे भाई ने संघपति का पद ग्रहण किया । झांझण का चौथा पुत्र पद्मसिंह था । इसने शंखेश्वर तीर्थ की संघ यात्रा समारोहपूर्वक सम्पन्न करवाई थी। इस कारण इसे संघपति भी कहा जाता था । झांझण का पांचवां पुत्र आल्हू था जिसने मंगलपुर और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएं कीं। इसी ने जीरापल्ली में एक सभा मंडप निर्मित करवाया था । आल्हू झांझण का छठा और अंतिम पुत्र था। यह उदारतापूर्वक धन व्यय करता था। इसने जिनचन्द्रसूरि की अध्यक्षता में श्री अर्बुद और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएं सम्पन्न करवाई थी। होशंगशाह का झांझण के छहों पुत्रों के प्रति अत्यधिक सम्मान था क्योंकि ये भ्रातागण न केवल योग्य, विद्वान् तथा धनी थे अपितु सुलतान होशंगशाह को उत्तम सलाह भी देते । इन्हीं के कहने से सुलतान ने राजा केसीदास, राजा हरिराज, राजा अगरदास तथा वरात, लूनार और बाहड़ नामक विख्यात और स्वाभिमानी ब्राह्मणों को बंदी-गृह से मुक्त किया था। होशंगशाह के समय एक और भी उल्लेखनीय जैन व्यक्तित्व मांडव में था । इसका नाम नरदेव सोनी था जो सुलतान का भंडारिक (कोषाध्यक्ष) व सलाहकार था । नरदेव एक महान् दानी व्यक्ति था और कभी भी अपने घर आये हुए पावक को निराश नहीं लौटाता था ।
होशंगशाह का पुत्र गजनीखाँ था । गजनीखाँ किसी कारणवश अपने पिता से रूठकर मांडवगढ़ से अपने मित्रों के साथ नांदिया ग्राम में आ गया था । इस ग्राम में धरणा नामक एक अत्यधिक धनी व उदार जैन श्रेष्ठी निवास करता था। गजनीखाँ ने धरणा से तीन लाख रुपया उधार मांगा जिसे धरणा ने इस शर्त के साथ दे दिया कि जब
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