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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
5. जैन तीर्थ सत्यपुर (सांचोर) :
जैन तीर्थ सत्यपुर (साँचोर) के विषय में तीर्थ दर्शन प्रथम खण्ड में जो विवरण दिया गया है उसी के आधार पर यहां इस तीर्थ का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है । इस तीर्थ का वर्णन जग चिन्तामणी स्तोत्र में है। यह कहा जाता है कि इस स्तोत्र की रचना गणधर गौतम स्वामी ने की थी । सांचोर का प्राचीन नाम सत्यपुर या सत्यपुरी था ।
पराक्रमी राजा श्री नाहड़ ने एक आचार्य से उपदेश पाकर वि. सं. 130 के लगभग एक विशाल गगनचुम्बी जिनालय का निर्माण करवाकर वीर प्रभु की स्वर्ण प्रतिमा आचार्य श्री जजिज्गसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करवाई थी। यह उल्लेख विविध तीर्थ कल्प में मिलता है ।
विक्रम की ग्यारहवी सदी के कवि धनपाल द्वारा रचित सत्यपुरी मण्डन महावीरोत्साह में भी इसका वर्णन है।
विविध तीर्थ कल्प में उल्लेख है कि इस तीर्थ की बढ़ती महिमा से विधर्मिया को ईर्ष्या होने लगी । इस तीर्थ को क्षति पहुंचाने मालवा से वि. सं. 1348 में मुसलमानी सेना, वि. सं. 1356 में अलाउद्दीन खिलजी के भाई उल्लुधखान यहां आए किंतु सबको हार मानकर वापस जाना पड़ा । अंततः वि. सं. 1361 में अलाउद्दीन खिलजी स्वयं आया और प्रतिमा को दिल्ली ले गया ।
यहां विक्रम की तेरहवीं सदी में कन्नौज के राजा द्वारा भगवान महावीर का काष्ट मंन्दिर बनवाने का उल्लेख है । अजयपाल के दण्ड नायक द्वारा विक्रम की तेरहवी सदी में भगवानश्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख मिलता है।
वर्तमान मंदिर के निर्माण काल का पता नहीं चलता किंतु वि. सं. 1933 में जीर्णोद्धार होने का विवरण मिलता है । कविवर समयसुन्दर जी की यह जन्म भूमि है । तीर्थाधिराज की प्रतिमा मनोहारी है ।
सभीपस्थ रेलवे स्टेशन रानीवाडा 48 कि.मी. है । अन्य स्थानों से बस सुविधा उपलब्ध है । धर्मशाला है । पानी, बिजली, बर्तन, बिस्तर व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है ।
रात्रिभोजन के ये चार भांगे हैं-1 दिन को बनाया, दिन में खाया, 2 दिन को बनाया रात्रि में खाया, 3 रात्रि को बनाया दिन में खाया, 4 अंधेरे में बनाया अंधेरे में खाया। इन भागों में से पहला भांगा ही शुद्ध है। रात्रिभोजन के त्यागियों को इन भांगों में सावधानी रख कर और परिहरणीय भांगों को छोड़ कर अपना नियम पालन करना ही लाभदायक है। इसी प्रकार रसचलित रातवासी, अभक्ष्य और नशीली चीजों भी वापरना अच्छा नहीं है। इन वस्तुओं को वापरने से शरीर के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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