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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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जैन साहित्य में द्वारिका
- डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन कुछ वर्षों पहले द्वारिका के सम्बन्ध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिखा गया था। उसमें जैन स्रोत को तो लगभग छोड़ ही दिया था। द्वारिका की खोज के लिये एक अभियान भी चला था। उस सम्बन्ध में भी कुछ पढ़ने को मिला था किंतु बाद में उस अभियान का क्या हुआ? कुछ जानकारी नहीं मिल पाई। प्रस्तुत लेख में द्वारिका विषयक जो विवरण जैन साहित्य में मिलता हैं, उसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा हैं।
द्वारका का निर्माण :- जरासंध से विग्रह के कारण आनेवाली विपत्ति के विषय
में समुद्रविजय (तीर्थकर अरिष्टनेमि के पिता) ने निमितज्ञ से पूछा कि उसका परिणाम क्या होगा ? निमितज्ञ क्रोष्टुकी ने बताया कि बलराम और श्रीकृष्ण जरासंध का वध करने के पश्चात् तीन खण्ड के अधिपति होंगे किंतु अभी यहाँ रहना आप सबके हित में नहीं है | आप यहाँ से पश्चिय दिशा के समुद्र की ओर चले जाओ । मार्ग में सत्यभामा जहाँ एक साथ दो पुत्रों को जन्म दे, वहीं नगर बसाकर रहना । वहाँ आपका कोई अहित नहीं कर सकेगा। निमितज्ञ क्रोष्टुकी के इस भविष्य कथन को सुनकर समुद्रविजय ने उग्रसेन सहित सौर्यपुर से प्रस्थान कर दिया। मार्ग में उन्हें जरासंध के पुत्र कालकुमार के अग्नि में भस्म होने की बात विदित हुई । उस पर वे प्रसन्न हुए । एक स्थान पर उन्होंने पड़ाव डाला । संयोग से वहां अतिमुक्त नामक चारणमुनि का पदार्पण हुआ। समुद्रविजय ने श्रद्धाभक्ति के साथ मुनिश्री को वंदन किया और अपनी विपत्ति का परिणाम पूछा।
मुनिश्री ने आश्वासन देते हुए फरमाया कि उन्हें चिंतित अथवा भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । उनका पुत्र अरिष्टनेमि बाईसवां तीर्थकर है । वह महान् पराक्रमी और भाग्यशाली है । बलराम एवं श्रीकृष्ण बलदेव और वासुदेव हैं । ये द्वारिका नगरी बसायेंगे और जरासंध को मारकर तीन खण्ड के अधिपति होंगे।
समुद्रविजय आदि वहां से चलकर सौराष्ट्र में आये। वहां रैवत पर्वत के निकट उन्होंने अपना पड़ाव डाला। यहां सत्यभामा ने दो युगल पुत्रों को जन्म दिया। श्रीकृष्ण ने दो दिन का उपवास कर लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थितदेव का एकाग्रचित्त हो ध्यान किया। सुस्थितदेव प्रकट हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण को पांचजन्य शंख, बलराम को सुघोषशंख के साथ दिव्य रत्न एवं वस्त्रादि भेंट किये। साथ ही देव ने श्रीकृष्ण से स्मरण करने का कारण भी पूछा।
श्रीकृष्ण ने कहा – “पहले के अर्द्धचक्रियों की द्वारिका नगरी को आपने अपने अंक में छिपा लिया है । अब कृपा कर वह मुझे फिर दीजिये । इस पर वहाँ से देव ने समग्र जलराशि हटाली और शक्र की आज्ञा से वैश्रवण ने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी द्वारिका नगरी का एक अहोरात्र में निर्माण कर दिया । यह नगरी सभी प्रकार से समृद्ध थी । यादवों ने शुभ मुहूर्त में नगरी में प्रवेश किया और सुखपूर्वक रहने लगे। द्वारका की अवस्थिति :- द्वारिका की अवस्थिति के सम्बन्ध में निम्नानुसार विवरण मिलता है
तस्या पुरो रैवतकोऽपाच्यामासीतु माल्यवान् ।
सौमनसोऽद्रि प्रतीच्यामुदीच्यां गन्धमादनः ।। इसके अनुसार द्वारिका के पूर्व में रैवत पर्वत, दक्षिण में माल्यवान पर्वत, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन पर्वत था । तात्पर्य यह कि द्वारिका चारों ओर से पर्वतों से घिरी होने से सुरक्षित थी, अजेय थी। शत्रुओं का कोई भय नहीं था, वह दुर्भेद्य थी ।
ज्ञाताधर्म कथांग, में द्वारिका के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार द्वारिका पूर्व-पश्चिम में लम्बी
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