Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 580
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ साधु चले तो इर्यासमिति पूर्वक, बोले तो भाषा समिति पूर्वक आहार लेने जाए तो एषणा समिति पूर्वक, कोई भी समिति पालन करे तो आदान भंड़मत्त निख्खेवणा समिति पूर्वक, शरीर का कोई भी मल, मैल निकालना हो या परठना हो तो पारिट्ठापनिका समिति का उपयोग करते हैं । परमात्मा के शासनकाल में साधुओं के मन, वचन, काया, नियन्त्रण में होते हैं। मन को घुमाना हो वही घुमाते हैं, न घुमाना हो वहां कभी नहीं घुमाते हैं । वाणी से नही बोलना हो तो कभी नहीं बोलेंगे, बोलना होगा तो योग्य, हित-मित और प्रिय शब्द ही बोलेंगे । शरीर को नहीं हिलाना हो तो नहीं हिलाएंगे और अगर संयम योग की साधना के लिए हिलाना भी पड़े तो जयणापूर्वक हिलाते हैं। यह है पांच समिति और तीन गुप्ति । साधु कभी कभी ही अप्रमत्त होते हैं, ऐसा नहीं मूड़ में होते हैं तभी अप्रमत्त होते हैं ऐसा भी नहीं बल्कि साधु सदा अप्रमत्त ही होते हैं। साधु वीतराग परमात्मा का अनुयायी हैं। "नवि हरखे नवि शोचे' ये विशेषता है। साधु में, न कभी हर्ष न कभी दुःख, शोक आदि । साधु को सुधा जैसा कहा जाता है। अमृत जैसा कहा जाता है। जगत में अमृत का दान करनेवाले होते हैं, उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले होते हैं । ऐसे गुण नहीं हो तो सिर मुंडाने से क्या मिलता है? पूज्य यशोविजयजी म. ने कहा हैं कि जैसे तैसे को योग नहीं कहा जाता हैं। मन को, राग-द्वेष को जीते समभाव में लीन बने उसको योग कहते हैं सिर मुंडाने से योग नहीं आता है। अगर आता हो तो भेड़ को हर वर्ष मुंडन करने में आता है । उसको तो नहीं आता हैं । जंगल में रहने से भी योग नहीं आता हैं, हिरण आदि जंगल में ही रहते हैं। जटा (बाल) बढ़ाने से भी योग नहीं आता है, वट वृक्ष को बड़ी बड़ी जटाएं होती हैं। भस्म लगाने से भी योग नहीं आता हैं, गधे भस्म में ही ज्यादा लोटते हैं । इसलिए पूज्यपाद कहते हैं कि मन स्थिर नहीं तो साधु पद का स्वाद नहीं । साधु को राग नहीं द्वेष नहीं अपना नहीं, पराया नहीं । कहीं भी आसक्ति नहीं, कहीं भी रुचि या अरुचि नहीं, किसी भी स्थिति में साधु समान अवस्था में ही होते हैं । साधु पद की आराधना जो बराबर की जाय तो जीवन की किसी भी स्थिति में साधु को विषाद ग्रस्त व्यथित, विहवल उन्मत्त या विवेकहीन नहीं बनने देगा हर एक अवस्था में सहज स्थितिप्रज्ञता आती हैं। यही साधु पद की तात्विक आराधना हैं । आचार्य, उपाध्याय, बाल, ग्लान, तपस्वी आदि की साधु निरन्तर सेवा करते हैं, हर समय हाजिर रहे हैं । सेवा वैयावच्च नाम का अभयंतर तप । वैयावच्च गुण को अप्रतिपाती गुण के रूप में पहचाना जाता है। दूसरे गुण तो आते हैं और चले जाते हैं, परन्तु इस गुण से तो आत्म विकास ही होता है आत्म पतन कभी नहीं होता है। साधु ने वैयावच्च गुण को आत्मा के साथ एकमेव कर दिया हैं। । में साधु जीवन में करने का क्या? घड़ा उठाने का । ऐसा बोलना, यह वैयावच्च धर्म का अपलाप हैं । संसार बहुत घड़े उठाये मगर यह पानी का घड़ा नहीं, 'निधान' अन्दर के गुण का प्रकट करता हैं । वीतराग शासन की कोई भी क्रिया अमूल्य हैं । वीतराग के शासन में 'काजा' निकालने की क्रिया, जो तुम्हारी भाषा में कचरा निकालने की क्रिया होती हैं, वह नहीं बल्कि विपुल कर्म निर्जरा करवा के यावत् केवलज्ञान दिलाने का काम करती हैं । और इसी के साथ श्रेष्ठ किस्म की जीवदया का परिणाम और प्रवृत्ति जुड़ी हुई हैं। यह जैन शासन का परम तत्त्व हैं । यह 'काजा' निकालने की क्रिया सम्यग्दर्शन के लक्षण स्वरूप हैं । इसमें जिनाज्ञा का पालन हैं । इससे सम्यग्निर्मल बनता है चारित्र विशुद्ध बनता है इससे आत्मा अवधिज्ञान, केवलज्ञान की भूमिका प्राप्त कर सकता हैं। परमात्मा के शासन की एक भी क्रिया कम नहीं हैं। I साधु के मैले कपड़े व रंग देखकर निंदा, जुगुप्सा करने से गहन कर्म बंध होता है। दर्शन मोहनीय कर्म का बंध होता है, नीच गोत्र व अशुभ कर्मों का बंध होता है। भूल से भी कभी आपके जीवन में साधु की निंदा या जुगुप्सा हुई हो तो प्रायश्चित कर लेना चाहिये और भविष्य में यह गलती नहीं हो इसका खास ध्यान रखना चाहिये । साधु को देखकर नाक बिगाड़ने से सीधा एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय में जन्म लेना पड़ता हैं, जिसमें नाक आदि नहीं होता हैं। यह कोई झूठ या शाप नहीं है बल्कि सच्ची हकीकत है और अगर पंचेन्द्रिय में भी उत्पन्न हो जाओ तो ऐसी विकृत अवस्था मिलेगी जिससे दुनिया अपने ऊपर घृणा करेंगी । | Jain Educationmation हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 88 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति

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