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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
दलित उत्थान में जैन समाज का योगदान
- डॉ. ए. बी. शिवाजी 'दलित उत्थान में जैन समाज का योगदान' विषय शोध का विषय है जिसमें धैर्य के साथ, श्रम–पूर्वक, सूक्ष्मता से सामाजिक मूल्यों के उन समस्त बिन्दुओं का परीक्षण करने की आवश्यकता है । यदि यह कार्य किया जाता है तो वर्तमान में 'दलित उत्थान' में जो कार्य हुआ है अथवा जो किया जा रहा है, उसका भारत की सांस्कृतिक परम्परा पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इस पर प्रकाश पड़ सकता है ।
'दलित उत्थान में जैन समाज के योगदान पर दृष्टि डालने के लिए हमें इतिहास के झरोखे से झांकना होगा। जब श्री महावीर स्वामी ने स्वयं आज से 2600 वर्ष पूर्व चांडाल हरिकेशी को दीक्षा देकर एक महान क्रांतिकारी कार्य किया था । कहा जाता है कि यहां हरिकेशी संयम त्याग, साधना द्वारा मुनि की उपाधि से अलंकृत किए गए । धर्म वास्तव में यह धर्म है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जैन धर्म नीतिपरक होने के कारण अपनी भूमिका निभाता आया है । यह बात अलग है कि जैन अनुयायी वर्तमान में कितने सद्गुणों एवं नीति का पालन करने वाले हैं ।
दलित आन्दोलन वास्तव में महाराष्ट्र के ज्योति बा फूले, नारायण गुरु और बाबा साहब आम्बेडकर द्वारा प्रेषित विचारों के कारण समाज में एक क्रांति का रूप ले रहा है । महात्मा गांधी ने भी 'हरिजन' शब्द का प्रयोग कर समाधान ढूंढने का प्रयास किया । मसीहियों ने भी दलितों का शूद्रों का उत्थान किया किन्तु इस दृष्टि से आज तक विचार नहीं किया गया। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि बौद्ध दर्शन तथा अम्बेडकर के विचार दर्शन के मिश्रण से दलित साहित्य ने इस आन्दोलन में, श्वास फूंका है।
जैन धर्म में दलित उत्थान की क्रांति का श्रेय आचार्य नानालालजी को जिन्हें आचार्य श्री नानेश भी कहा जाता है, दिया जाता है जिन्होंने अपने प्रवचनों के द्वारा निम्नतम समझी जानेवाली जातियों के हृदयों को जीता और दलित आन्दोलन का जैन धर्म में नये रूप से आव्हान किया । कहा जाता है कि आचार्य नानालालजी ने इस क्रांति का आरम्भ 22-23 मार्च 1964 को नागदा के पास गुराडिया ग्राम से किया था । जहां बलाई जाति के लोग मुखिया श्री गोबाजी की सुपुत्री एवं चावरजी की बहिन के शुभ विवाह के उपलक्ष में एकत्र हुए थे और उन्हें आचार्य नानालालजी मांस, मदिरा, शिकार, त्याग और सदाचारी जीवन जीने का व्रत दिलवाकर जैन समाज में, हृदय परिवर्तन करवाकर, धर्मान्तरण करवाया था । धर्मान्तरण हृदय परिवर्तन का दूसरा नाम है और इसमें कोई बुराई नहीं है । मानव यदि अपने जीवन में मानवीय गुणों एवं मूल्यों को समाविष्ट कर अपने जीवन को उठाता है तो इससे अच्छी बात जीवन में और कौन सी हो सकती है । कहा जाता है कि महाराजश्री ने गुराडिया से बरखेड़ा, बड़ावदा, लोद, लम्बोदिया, गुजरवरडिया, ताल, आकमा, आलोट, महिदपुर, डेलची, बोरखेडा,रानी पीपलिया, रण्डा धमाखेडा आदि ग्रामों में विहार कर दलितों के विशेषकर बलाई जाति के सप्त व्यसनों को छुडाते हुए, जैन समाज का अंग बनाते हुए, प्रवचन की धारा बहाते रहे जिसके कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय में एक नये आन्दोलन का जन्म हुआ और आचार्य नानालालजी प्रथम प्रवर्तक हुए । ऐसा बताया जाता है कि गुराडिया में श्री सीताराम राठोड, बलाई नागदा तथा धूलजी भाई बलाई, गुराडिया ने आचार्य नानालालजी के सम्मुख यह कहा कि महाराज हमारी जाति का उद्धार कीजिए । आचार्य नानालालजी ने उन्हें जैन धर्म में स्वीकार करने के तत्पश्चात उन्हें 'धर्मपाल' नाम दिया गया ताकि वे अपने नाम के बाद 'जैन' के स्थान पर 'धर्मपाल' लगावे ताकि वे अछूत नहीं समझे जावे । आचार्यजी के इस कृत्य के कारण लोग उन्हें 'अछूतों के महाराज' भी कहने लगे थे ।
आचार्य नानालालजी के कार्य को गति देने में धर्मेश मुनिजी ने धर्मपाल प्रवृत्ति को नई दिशा दी । उन्होंने चिन्तन मनन कर धर्मपाल समाज की सामाजिक उन्नति के लिए ग्राम-ग्राम पद विहार कर व्यसन मुक्ति और संस्कार क्रांति का प्रचार प्रसार किया जिस से प्रेरित हो श्री गणपतराज बोहरा ने उदारता पूर्वक श्री प्रेमराज
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