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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
उस नगर की स्थापना कब हुई, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है । केवल अनुमान के आधार पर और कुछ घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि श्रीमाल नगर की स्थापना ई. पूर्व पांचवी शताब्दी में हुई होगी।
सं. 1393 में लिखित उपकेशगच्छ प्रबन्ध से ज्ञात होता है कि पार्श्व परम्परा के पांचवें पट्टधर आचार्य श्री स्वयंप्रभ सूरि ने महावीर निर्वाण से 52 वें वर्ष में श्रीमालपुर की ओर विहार किया । उससे भी इस नगर की प्राचीनता सिद्ध होती है । चीनी यात्री हेनसांग ने भी उसके सम्बन्ध में लिखा है - 'किऊ वे सोनी गुजरात की राजधानी पिलोमोला (भिल्लमाल) है। भिल्लों एवं मालों की बस्ती होने से तथा कवि माघ का आदर नहीं होने से उस प्रदेश का नाम भिल्लमाल पड़ा । बाम्बे गजेटियर के अनुसार जगत स्वामी का मन्दिर, सूर्यमन्दिर, यहां सं. 222 में बने। सं. 265 में नगर भंग हुआ, सं. 494 में नगर लूटा गया । सं. 700 में पुनः आबाद हुआ । सं. 900 में तीसरी बार लूटा गया। सं. 955 में पुनः नगर का संसकर हुआ।
निकोलस पुफलेंट नामक एक अंग्रेज ने सन् 1611 में इस नगर के विस्तार के सम्बन्ध में लिखा जिसमें उस नगर के 36 मील विस्तारवाले कंगूरेदार किले की सुन्दरता का वर्णन किया गया है ।
इस नगर से अनेक जैनाचार्यों का सम्बन्ध रहा है जिनके नाम उस प्रकार है - आचार्य स्वयंप्रभसूरि, आचार्य रत्नप्रभसूरि (दोनों वीर सं. 52) आचार्य दुर्ग स्वामी, आचार्य सोमप्रभाचार्य, आचार्य सोमप्रभसूरि, आचार्य सिद्धर्षिगणी, आचार्य जयप्रभसूरि, आचार्य उदयप्रभसूरि, आचार्य वीरसूरि, आचार्य देवगुप्त सूरि, आचार्यकवकसूरि, आचार्य धर्मप्रभसूरि, आचार्य भवसागरसूरि, आचार्य ज्ञानविमल सूरि आचार्य राजेन्द्रसूरि, आचार्य धनचन्द्रसूरि, आचार्य भूपेन्द्रसूरि, आचार्य यतीन्द्रसूरि, आचार्य विद्याचन्द्र सूरि, आचार्य हेमेन्द्रसूरि । ये आचार्य अलग अलग परम्परा से सम्बन्धित हैं । इतने आचार्यों का इस नगर से सम्बन्ध रहना अथवा उनका समय समय पर इस नगर में पधारना इस बात का प्रतीक है कि यहां जैन धर्मविलम्बियों का बाहुल्य रहा है और इससे इस नगर की अतिशयता में वृद्धि होती रही ।
हम यहां इस नगर की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में चाहते हुए भी नहीं लिख रहे हैं । प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट है कि यह नगर काफी प्राचीन है । यहां जैन धर्म की स्थिति भी अच्छी रही । उस नगर पर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की विशेष कृपा रही । आपके उपदेश से प्रतिबोध पाकर 800 परिवारों ने त्रिस्तुतिक
आम्नाय को स्वीकार किया । इनमें से 100 परिवार वालों ने वर्ग व्यवस्था अंचलगच्छीय ही रखी । परन्तु त्रिस्तुतिक क्रियाओं को स्वीकार किया। आपकी पट्टपरम्परा के आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरिजी ने यहां जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठायें करवाई । उसके पश्चात् भीनमाल के निवासियों की आर्थिक स्थिति में चार चांद लग गए।
वर्तमान भीनमाल में ग्यारह जैन मन्दिर है जिनमें भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर प्राचीन माना जाता है । प्रतिमा के परिकर पर सं. 1011 का लेख उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई थी । भूगर्भ से प्राप्त यह प्रतिमा तथा अन्य प्रतिमाएं जालोर में गजनीखान के अधीन थी । वह इन प्रतिमाओं को रखने में मानसिक क्लेश का अनुभव कर रहा था । अन्ततः उसने प्रतिमाएँ श्रीसंघ को सौंप दी, जिन्हें संघवी श्री वरजंग शेठ ने भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1662 में स्थापित करवाई । उस अवसर पर गजनीखान ने 16 स्वर्ण कलश चढ़ाये थे । यह उल्लेख श्री पुण्यकमल मुनि द्वारा रचित भीनमाल स्तवन में मिलता है ।
भीनमाल जोधपुर अहमदाबाद रेलमार्ग पर है । भीनमाल स्टेशन 0.8 कि.मी. की दूरी पर है । जोधपुर, जालोर, जयपुर, सिरोही, उदयपुर, अहमदाबाद आदि स्थानों से बसे उपलब्ध हो जाती है ।
यहां ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली,बर्तन, बिस्तर भोजनशला आदि की सुविधा है ।
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हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
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