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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जैन कला के विविध आयाम
- प्रोफेसर एस. पी. शुक्ल, भारतीय चिन्तन-धारा में जैन धर्म एवं दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान है । इसके साथ ही भारतीय कला के विकास में भी जैन परम्परा ने गति प्रदान की है । जैन धर्म का मूल अत्यन्त प्राचीन काल से ढूढां जा सकता है। कुछ विद्वानों के अनुसार जैन धर्म भी कुछ विशेषताओं का प्रारम्भ सिंधु सभ्यता (ई. पू. 3000) में देखा जा सकता है। तत्कालीन मुहरों तथा मूर्तियों से प्राग जैन धर्म सम्बन्धी कुछ जानकारी प्राप्त है । तपस्या एवं योगासनों का प्रारम्भिक रूप इस सभ्यता काल में विकसित हो गया था । हड़प्पा से प्राप्त पाषाण कबन्ध में कायोत्सर्ग-मुद्रा का प्राग् रूप प्राप्त है जिसका विकास ऐतिहासिक कालीन जैन मूर्तियों में स्पष्टतया मिलता है । अभी हाल ही में श्री आर.एस. बिष्ट को धौलाबीरा (कच्छ, गुजरात) के उत्खनन से एक शिर विहीन पाषाण मूर्ति मिली है जिसमें पुरुष को नग्न रूप में उत्कुटिकासन से मिलती जुलती मुद्रा में बैठे दिखलाया गया है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जिन वातरशना मुनियों और यतियों का उल्लेख है उनकी जीवन पद्धति में तपस्या की परम्परा के प्रचलित होने का ज्ञान होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल से भारत में तपस्या एवं साधना का महत्व स्वीकृत हो चुका था । उसी पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक काल में श्रमण परम्परा का संवर्द्धित हुई जिसका विकसित रूप आज भी जैन एवं बौद्ध धर्मों में स्पष्टतया दर्शनीय हैं ।
ऐतिहासिककालीन जैन कला का प्रारम्भ मौर्यकाल (तीसरी शती ई. पू.) से हुआ । परम्परा यह भी बतलाती है कि 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्रतिमा का पूजन उनके जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो गया था । वसुदेवहिन्डी
और आवश्यकचूर्णी में एतद्विषयक उल्लेख प्राप्त है । इसमें कहा गया है कि रोसक (सिंध-सौवीर, आधुनिक सिंध, पाकिस्तान) के राजा उद्दायण की पत्नी ने महावीर के व्यक्ति चित्र (पोर्टेट) की पूजा की थी । जैन धर्म में तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण परवर्ती काल में महत्वपूर्ण बन गया । जैन कला बड़ी समृद्ध है । जैन धर्म सम्बन्धी कलात्मक अभिव्यक्ति कई माध्यमों - पाषाण, मृण्मय एवं धातु-में प्राप्त है । जैन धर्म सम्बन्धी कलात्मक अंकन भारत के विभिन्न भागों से उपलब्ध हैं। इनके अध्ययन से जैन धर्म के विकास एवं मान्यताओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । प्रस्तुत लेख में पाषाण, मिट्टी, धातु की प्रतिमाओं एवं अंकनों की चर्चा की गई है जिसे कलाकारों की कुशलता, कला माध्यमों की उपयोगिता एवं लोकप्रियता का ज्ञान होता है । पाषाण मूर्तिया:
जैन धर्म सम्बन्धी पाषाण मूर्तियां सर्वाधिक प्राप्त है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि यह मूर्तियां मौर्य काल से निर्मित की जाने लगी थीं । लोहानीपुर (पटना के निकट) से प्राप्त पाषाण कबन्ध किसी तीर्थंकर मूर्ति का भाग रहा था जिसकी पहचान करना सम्भव नहीं है । मूलतः इस मूर्ति में तीर्थकर को खड्गासन-मुद्रा में दिखलाया गया था । इस पर मौर्यकालीन पालिश है ।
जैन कला के विकास में मथुरा के कलाकारों का विशेष योगदान रहा । यहां पर जैन धर्म सम्बन्धी मूर्तियों का निर्माण शुंग काल (2री शती. ई. पू.) से होने लगा था । इस काल के कई शिलापट्ट पाये गये हैं जिन्हें उत्कीर्ण अभिलेखों में 'आयागपट्ट' कहा गया है । इन शिलापट्टों को चैत्यगृहों में वृक्ष के नीचे सिंहासन पर दर्शनार्थ स्थापित किया जाता था। इन पर सुन्दर आकृतियां उत्कीर्ण की गयी थी । इन पर आकर्षण रूपक बनाये जाते थे। हो सकता है कि इन्हें चैत्य की आन्तरिक अलंकरण में भी प्रयुक्त किया जाता हो । इन शिलापट्टों पर जैन प्रतीकों को विशेष महत्व दिया गया । कुछ आयागपट्टों पर तीर्थंकर अथवा किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का भी अंकन किया गया । ऐसे आयागपट्ट राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं मथुरा के संग्रह में है । मथुरा से प्राप्त शुंगकालीन आयागपट्टों पर
प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
कुरुक्षेत्र वि वविद्यालय, कुरुक्षेत्र - 136 119
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हेमेश ज्योति* हेमेकर ज्योति
36 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्टज्योति