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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जानकारी प्राप्त होती हैं । अभिलेख होने से मूर्ति को लिपिविज्ञान के आधार पर तिथिबद्ध करना भी आसान हो गया। पूर्व मध्यकालीन मूर्तियां कई प्रकार की हैं । कुछ मूर्तियां तीर्थंकर विशेष की हैं, कुछ में कई तीर्थकर एक साथ दिखलाये गये हैं । कुछ मूर्तिपट्ट प्राप्त हुए हैं जिनमें ऋषभनाथ/आदिनाथ प्रमुख देव हैं किन्तु उनके साथ 23 तीर्थंकरों का भी अंकन है । यह ध्यान और खड्गासन दोनों मुद्राओं में हैं । इससे प्रतीत होता है कि 24 तीर्थंकरों को एक स्थान पर पूजने की प्रथा का विकास हुआ था । यह उसी तरह है जैसे विष्णु की मूर्ति में विष्णु के दस अवतारों को भी स्थान दिया गया । मृण्यमूर्ति कला :
भारतीय मृण्यमूर्ति कला इतिहास का आद्यैतिहासिक कालीन प्राग सिंधु तथा सिंधु सभ्यता काल से प्रारम्भ हुआ जिसका विकास ऐतिहासिक काल में विभिन्न चरणों में होता रहा । मृण्यमूर्ति कला में ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध तीनों सम्प्रदायों के अवशेष प्राप्त हैं । साथ ही लोक जीवन से सम्बन्धित देवी-देवताओं का भी निर्माण हुआ है । जैन धर्म का मृणमूर्ति कला में बहुत कम अंकन प्राप्त है । अधिकांश उदाहरण जो अभी तक पाये गये हैं । प्रायः गुप्तकालीन (चौथी- छठी शती ईस्वी) के हैं | जैन धर्म के संरक्षण हमेशा समाज का धनाद्य वर्ग रहा । वह पाषाण एवं धातु भी जैन मूर्तियों का अपनी इच्छानुसार निर्माण कराने तथा क्रय करने में सक्षम थे । सम्भवतः इसी कारण जैन धर्म के कलात्मक अंकन के लिए मृणमूर्ति कला को अधिक अपनाया नहीं जा सका ।
जैन तीर्थंकर के चार अंकन मृण्मूर्ति कला में प्राप्त हैं । अयोध्या के (जिला फैजाबाद, उत्तरप्रदेश) के उत्खनन से प्राप्त जैन तीर्थंकर का मृणमय अंकन सर्वाधिक प्राचीन है । यह मृणमूर्ति 6.7 से.मी 4.5 से. मी. आकार की है । इसे सांचे से बनाया गया था । यह धूसर वर्ण की है । स्तरीकरण का आधार पर इस मृणमूर्ति को तृतीय शती ई. पू. रखा गया है । इसमें तीर्थकर को खड़गासन में दिखलाया गया था । मूर्ति का आधा हिस्सा खण्डित है । मूर्ति में आकृति के लम्बे कान हैं । इसमें तीर्थंकर को मुण्डित केश दिखलाया गया है । प्रतिष्ठासारसंग्रह के अनुसार तीर्थकर के शरीर पर केश नहीं दिखलाये जाने चाहिए । इस प्रकार तीर्थकर का इस मण्यमूर्ति में अंकन प्राचीन परम्परा के आधार पर हुआ है । यह उल्लेखनीय है कि अयोध्या जैन धर्म सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण स्थल रहा था । परम्परा के अनुसार अयोध्या में तीन तीर्थंकरों का जन्म हुआ था । चौथे तीर्थकर अभिनन्दननाथ, पाचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ और चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथ की जन्मस्थली अयोध्या बतलायी गयी है।
मृणमूर्ति कला में दो अन्य अंकन गुप्तकालीन हैं । क मृणमूर्ति मोहम्मदी (लखीमपुर-खीरी, उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुई है । यह मृणमूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ के संग्रह में है । पादपीठ पर सुपार्श्वः गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है । तीर्थकर को ध्यानमुद्रा में बैठे दिखलाया गया है |उनके मुख पर स्मित भाव है । तीर्थकर की तीसरी मृणमूर्ति सहेट महेट (जिला गोण्डा-बइराइच, उत्तरप्रदेश) से प्राप्त हुई है । सहेट महेट की पहिचान प्राचीन श्रावस्ती, जो कोशल जनपद की राजधानी थी से की जाती है । यह तीर्थकर मूर्ति का कबन्ध मात्र है जिसमें वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित हैं। एक मूर्ति तिल्दा (कंगाल) से पायी गयी है जिसमें जिन का सिर खण्डित है ।
तीर्थकर आकृतियों के अतिरिक्त मृणमूर्ति कला में नेगमेष तथा नेगमेशी का भी अंकन प्राप्त है । यह 'बालग्रह थे जिनकी पूजा बालकों के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए लोक में की जाती है । उल्लेखनीय है कि महावीरस्वामी के भ्रूण को ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्राणी के गर्भ में इन्द्र के आदेश पर नेगमेष ने स्थापित किया था । इस प्रकार जैन धर्म में नेगमेष की एक महत्वपूर्ण देवता के रूप मान्यता है जिसका कलात्मक अंकन कुषाण मथुरा कला में उपलब्ध है जिसका पहले उल्लेख किया गया है । नेगमेष का स्फूर्ति कला में भी अंकन प्राप्त है । नेगमेष को लम्बे कानों से युक्त दिखलाया गया है जिससे उनके मेषरूपी स्वरूप का संकेत मिलता है । ऐसी मृणमूर्तियां अहिच्छा, मथुरा, कुभराहार (पटना) आदि अनेक ऐतिहासिक स्थलों से पायी गई है । स्तरीकरण के आधार पर यह चौथी पांचवीं शती में विशेष लोकप्रिय रहीं ।
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