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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
4. पोरवाल जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों से हुई है। 5. सामान्य गोत्रों के अतिरिक्त अलग अलग शाखाओं के अलग अलग गोत्र भी पाये जाते हैं । 6. पौषध शालाओं में जो लेखे रखे गए हैं । उनकी गोत्र भी पौषधशालाओं में भिन्न है । उससे कुल गोत्रों की
संख्या निर्धारित करना कुछ असम्भव हो गया है । 7. कुछ गोत्र विलुप्त हो गये हैं जिनका विवरण कहीं नहीं मिलता है । इसी प्रकार यदि अन्य और
पौषधशालाओं के लेखो का अध्ययन किया जाय तो सम्भव है, कुछ गोत्रों का और विवरण भी मिल सकता है। 8. पौषधशालाओं में जिन गोत्रों के लेखे हैं उन गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई? इस बात का उल्लेख नहीं किया
गया है । यदि गोत्रों की उत्पत्ति का विवरण मिल जाता तो और भी महत्वपूर्ण होता । 9. गोत्रों को उत्पत्ति के सामान्य आधार निम्नांकित बताये जाते हैं । 1. स्थान के नाम पर 2. व्यवसाय के
आधार पर 3. व्यक्ति के नाम पर 4. कुल के आधार पर 5. कर्तव्य के आधार पर । इसे घटना विशेष के आधार पर कहना अधिक उचित होगा आदि आदि ।
पोरवाल जाति के इतिहास पर विस्तार से लिखा जा चुका है किंतु फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित है जिन पर अनुसंधान की आवश्यकता है ।
परम श्रद्धेय गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. इसी पोरवाल जाति के एक उज्ज्वल रत्न हैं जो वर्तमान काल में जैनधर्म की ध्वजा को पूरे भारतवर्ष में फहरा रहे हैं |
आग्रही मनुष्य अपनी कल्पित बातों की पुष्टि के लिये इधर-उधर कुयुक्तियाँ खोजते हैं और उनको अपने मत की पुष्टि की ओर ले जाते हैं। मध्यस्थ दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भास्त्र और युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरुप को मान लेने में तनिक भी खींचतान या हठाग्रह नहीं करते। अनेकान्तवाद भी बतलाता है कि सुयुक्तिसिद्ध वस्तुस्वरुप की ओर अपने मन को लगाओ, न कि अपने मनःकल्पित वस्तुस्थिति के दुराग्रह में उतर कर असली वस्तु स्थिति के अंग को छिन्न-भिन्न करो। क्योंकि मानस की समता के लिये ही अनेकान्त तत्त्वज्ञान जिनेश्वरों के द्वारा प्ररूपित किया गया है। उस में तर्क करना और भांक-कांक्षा रखना आत्मगुण का घात करना है।
___ संयम को कल्पवृक्ष की उपमा है, क्योंकि तपस्या रूपी इसका मजबूत जड़ है, संतोष रूपी इसका स्कंध है, इन्द्रियदमन रूपी इसका भाखा-प्रशाखाएँ हैं, अभयदान रूप इसके पत्र हैं, शील रूपी इस में पत्रोदूग हैं और यह श्रद्धाजल से सींचा जाकर नवपल्लवित रहता है। ऐश्वर्य और स्वर्गसुख का मिलना इस के पुष्प हैं और मोक्षप्राप्ति इस का फल है। जो इस कल्पवृक्ष की सर्व तरह से रक्षा करता है उसके सदा के लिये भवभ्रमण के दुःखों का अन्त हो जाता है।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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