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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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दृष्टि को अपने जीवन पथ पर
साध्वी मोक्षरसाश्री
बालक-बालिकाएं Lesson में, युवक युवितयां फैशन और व्यसन में व्यस्त । छुट्टियों में खाली बैठे बैठे गप्पे हांकना, निंदा करना आदि से लोगों को फरसत ही नहीं मिलती है । जिन्दगी का अमूल्य समय कहाँ निकल जाता है, ये उनको स्वयं को भी मालूम नहीं पड़ता हैं । जब दिन निकलता हैं, तब तारीख के केलेण्डर में से एक तारीख कम हो जाती हैं । इसी तरह कम होते-होते अंतिम तारीख पूरी हो जाने पर सुन्दर दिखने वाले केलेण्डर को फेंक दिया जाता हैं और उसकी जगह एक नया केलेण्डर आ जाता है, लगा देते हैं । लेकिन उस नये केलेण्डर की भी ऐसी ही हालत होती है।
ठीक इसी प्रकार आत्मा ने भी केलेण्डर के रूप में शरीर को धारण किया हैं । सबसे पहले निगोद में । वहाँ पर स्वतन्त्र शरीर नहीं होता हैं, परन्तु एक ही शरीर के अन्दर अनन्त जीव रहते हैं । एक श्वासोश्वास में 17-18 बार जन्म-मरण करता हुआ जीव अनंत काल तक निगोद में रहता हैं | जब एक आत्मा सिद्धगति, मोक्ष में जाता हैं तब कोई एक पुण्यशाली आत्मा निगोद में से (अव्यवहार राशि) निकलकर व्यवहार राशि यानि एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता हैं । एकेन्द्रिय यानि स्थावर। स्थावर यानि एक ही जगह पर रहे हुए पृथ्वीकाय, अपकाय (पानी), तेउकाय (अग्नि), वायुकाय (पवन) और वनस्पतिकाय के जीव । इन पांच स्थावर काय के जीवों को शरीर रूपी एक ही इन्द्रिय मिलती हैं । यहां पर अनंत समय तक जन्म-मरण, छेदन-भेदन हुआ । अनंतानंत दुःखों को सहन करने के बाद द्विन्द्रिय में जन्म लिया । वहां शरीर के साथ में मुंह भी मिला। अनंतबार जन्म-मरण हुआ । उसके बाद तेइन्द्रिय, चउरीन्द्रिय आदि में बहुत बार जन्म लिया और अब पंचेन्द्रिय में जन्म हुआ । अभी अपने को लगता हैं कि तिर्यंच बनने में कितना दुःख सहन करना पड़ता है । परवशता, ठण्डी, ताप, भूख, प्यास आदि के लिए पराधीन रहना पड़ता हैं । ओह ! कितना दुःख । अनंत पुण्य का जब उपार्जन होता हैं तब मानव भव प्राप्त होता हैं । और उसमें भी सभी के पुण्य एक जैसे नहीं होते हैं ।
इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में बत्तीस हजार देश है । उसमें से 25%2 आर्य देश हैं, बाकी सभी अनार्य देश हैं।
जिस प्रकार से सुख अच्छा लगता है, दुःख नहीं । जीवित रहना अच्छा लगता है, मरना नहीं । इसी प्रकार सृष्टि के सभी जीवों को सुख व जीवित रहना अच्छा लगता हैं, इसलिए किसी भी जीव को मारने का हक अपने को नहीं हैं । सभी को अभयदान देना अपना कर्तव्य हैं ।
जयणा, दया, करुणा आदि रखने से कर्मों की निर्जरा होती हैं ।
संसार में जन्म लिया हैं । मानव भव प्राप्त किया हैं । मगर अंतराय कर्म के कारण संसार में रहना पड़ता है । फिर भी जल में कमल की तरह रहना चाहिये । जन्म लिया तब भी कुछ लेकर नहीं आए थे, मरते समय भी कुछ लेकर नहीं जा पाएंगे ।
यही संसार का स्वरूप है ।
धर्म ही साथ आता है और साथ जाता है ।
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