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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
वि. सं. 1293 में दानवीर, विद्वान और शिल्पविद्या में निपुण मंत्री श्री यशोवीर द्वारा श्री आदिनाथ भगवान के : मन्दिर में कलायुक्त अद्भुत मण्डप के निर्माण करवाने का उल्लेख है । इसी प्रकार वि. सं. 1310 वैशाख शुक्ला त्रयोदशी शनिवार, स्वाति नक्षत्र में भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर में चौबीस जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा अनेक राजाओं और प्रमुख व्यक्तियों की उपस्थिति में होने का भी उल्लेख खरतरगच्छ गर्वावली में मिलता हैं । मंत्री जयसिंह के तत्वावधान में यह प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था । वि. सं. 1342 में सामन्तसिंह के सान्निध्य में अनेक जिन प्रतिमाओं के प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । उन सब प्रमाणों से यह प्रमाणित होता है कि स्वर्णगिरि जालोर जैन तीर्थ प्राचीन तीर्थ है ।
समय के प्रवाह के साथ परिवर्तन हुआ और बाद में सरकारी कर्मचारियों ने इन मन्दिरों में युद्ध सामग्री भरकर चारों ओर कांटे लगा दिये थे । कहा गया है कि समय सदैव एक समान नहीं रहता है । इस कहावत के अनुसार विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का यहां पदार्पण हुआ ।
उन्होंने यहां के जिनालयों को देखो तो उनका हृदय क्षोभ से भर गया । उन्होंने इस तीर्थ का उद्धार करने का निश्चय किया और अपने प्रयास शुरू कर दिये । आपके सद्प्रयासों से जैन मन्दिरों से सरकारी नियन्त्रण समाप्त हुआ और वि. सं. 1933 की माघ शुक्ल प्रतिपदा रविवार को महामहोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाकर गुरुदेव ने जालोर से विहार किया । जैन मन्दिरों को मुक्त करवाने के लिये गुरुदेव को अनशन भी करना पड़ा । जोधपुर नरेश श्री यशवंतसिंहजी ने भी स्थिति को समझते हुए सहृदयता का परिचय दिया ।
जालोर में नगर के अन्य जैन मन्दिर भी दर्शनीय है । पहाड़ पर जाने के लिये वयोवृद्ध यात्रियों के लिए डौली का साधन भी है।
समुद्र की सतह से लगभग 1200 फुट की ऊंचाई पर एक पर्वत पर 2.5 कि.मी. लम्बे व 1.25 कि चौड़े प्राचीन किले के परकोटे में जैन मन्दिरों का दृश्य मनोहारी है । जालोर नगर में यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशाला आदि सभी है। 2. जैन तीर्थ श्री भाण्डवपुर :
यह जालोर जिले का प्रसिद्ध जैन तीर्थ है । उस स्थान तक जाने के लिए समीपस्थ रेलवे स्टेशन जालोर है, जो 56 कि.मी. है, दूसरा विशनगढ़ 40 कि.मी. एवं तीसरा मोदरा 30 कि. मी. की दूरी पर है । उन सभी स्थानों से बसें एवं टेक्सियों की सुविधा उपलब्ध है ।
भाण्डवाजी अथवा भाण्डवपुर गांव और यहां के मंदिर का इतिहास प्राचीन बताया जाता है । कहा जाता है कि जालोर के (प्राचीन जाबालिपुर के) शासक परमार भाण्डुसिंह ने इसे बसाया था और इस पर शासन भी किया। उसके पश्चात् उसके वंशजों ने भी पीढ़ियों तक उस पर शासन किया । वि. सं. 1322 में बावतरा दय्या राजपूत बुहडसिंह ने यहां के परमार शासकों को पराजित कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था । इस क्षेत्र पर दय्या राजपूतों का अधिकार स्थापित होने के कारण उस क्षेत्र का नाम दियावट पट्टी हो गया । कालांतर में इस क्षेत्र पर जोधपुर नरेश ने अधिकार कर लिया । वि. सं. 1803 में जोधपुर नरेश रामसिंह ने दय्या लुम्बाजी से इस क्षेत्र को छीन कर आणा के ठाकुर मालमसिंह को दे दिया । ठाकुर मालमसिंह के वंशजों का इस क्षेत्र पर स्वतंत्रता प्राप्ति तक आधिपत्य रहा । इतिहास के इस विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाण्डवपुर कभी बड़ा नगर रहा होगा ।
ऐसा बताया जाता है कि इस क्षेत्र में बेसाला नामक एक कस्बाई गांव था, जिसमें जैन धर्माविलम्बियों के सैकड़ों घर थे । ये सभी श्वेताम्बर जैन थे । बेसाला में एक भव्य एवं मनोहर सौंध शिखरी जिनालय था । इस जिनालय के एक स्तम्भ पर सं. 813 श्री महावीर उत्कीर्ण था, जो आज श्री भाण्डवपुर जैन तीर्थ में है ।
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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