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श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ
किन्तु सिद्ध वह जिसने कुछ पा लिया । दोनों में यही अन्तर है । फिर भी सिद्ध वही पहुंचते हैं जहाँ अरिहंत पहुंचते हैं । तो ऐसे सिद्ध भगवान को मेरा नमस्कार है । उसके अतिरिक्त भाषा में यह उपयित है कि विधायक का स्थान सदैव दूसरा ही होता है । जैसा कि मैंने अभी कहा कि अरिहंत का स्वरूप निराकार होता है जिसका आकार दिया ही नहीं जा सकता वह सिद्ध के आकार से पृथक तो होगा ही साथ ही व्यापक रूप में अपरिमित । तीसरा सूत्र है आचार्यों को नमस्कार हो (णमो आयइरियाण) । अर्थात् वह व्यक्ति जिसने केवल पाया ही नहीं अपितु आचरण से अपनी चर्चा से भी प्रकट किया हो । आचार्यों का आचरण और ज्ञान दोनों सार्थक हों, उनमें आपस में तादाम्य हो तो ऐसे आचार्यों को नमस्कार हो ।
अरिहंत और सिद्ध हमारी पकड़ से परे हो सकते हैं लेकिन हमारी पकड़ में आचार्य आ सकते हैं । किन्तु यह पकड़ यदि संभव है तो खतरे भी असंभव नहीं है । हमारी क्रियाएं हमें धोखा दे सकती हैं । क्योंकि जो दिखायी दे वह जरूरी नहीं कि वह वही हो । पर, आचार्य वही जिसका ज्ञान और आचरण अभिन्न हो । एक हो । चौथा, 'णमो उवज्झायाणं' अर्थात् उपाध्यायों को नमस्कार हो । उपाध्याय' अर्थात् उसमें केवल ज्ञान सहित आचरण ही नहीं अपितु उसमें उपदेश देने की शक्ति भी हो । जो जानता है उसी में जीता है और जो जीता है वही बताता है तो उपाध्याय इस दृष्टि से महान हुआ पर आचार्य को लौकिक व्यवस्था करने के कारण बड़ा होना हुआ । पांचवें चरण में, णमोलोए सव्व साहूणं' । अर्थात् लोक में सभी साधुओं को नमस्कार हो । 'साधु जो चुपचाप साधना में जुटा है और सधने की अपलक प्रक्रिया जारी है, लोक में ऐसे सभी साधुओं को मेरा प्रणाम हो / नमस्कार हो जो अपनी साधना में पूर्णतः सध चुके हैं । अर्थात् सधा हुआ होना ही साधु होना है ।
इस प्रकार णमोकार महामंत्र में पंचपरमेष्ठियों के गुणों का चिंतन किया जाता है । गुणों का निरंतर चितवन करने से जहां एक ओर चिंतक के आत्मिक गुणों का जागरण होता है वहीं दूसरी ओर वातावरण में अद्भुत परिवर्तन होता है जिसके प्रभाव से सुख समृद्धि का वातावरण तो होता ही है साथ ही अन्य जीवों का कल्याण भी संभव हो जाता है । तब फिर इस महामंत्र की उपादेयता स्वतः ही उजागर हो जाती है ।
मंगल कलश, 394 सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़ 202 001.
_संसारी मनुश्यों में जो अपनी सुखसुविधा की कुछ भी चिन्ता न कर केवल परमार्थ में ही आत्मभोग देनेवाले हैं, वे उत्तम हैं। अपनी स्वार्थसाधना के साथ जो दूसरों के साधन में भी यथा क्यि सहयोग देते रहते हैं वे मध्यम है। जो केवल अपने स्वार्थ साधन में ही कटिबद्ध रहते हैं; परंतु दूसरों के तरफ लक्ष्य नहीं रखते, वे अधम हैं। और जो अपनी भी साधना नहीं करते और दूसरों को भी बरबाद करना जानते हैं वे अधमाधम है। इन चारों में से प्रथम के दो व्यक्ति सराहनीय और समादरणीय हैं। प्रत्येक प्राणी को प्रथम या दूसरे भेद का ही अनुसरण करना चाहिये, तभी उसकी उन्नति हो सकेगी।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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