Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 538
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संस्कार एवं उसके भावार्थ मानव जीवन की सम्पूर्ण शुभ और अशुभवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है । उनमें से कुछ वह पूर्व भव से अपने साथ लाता है और कुछ उसी भव (जन्म) में संगति, शिक्षा, वातावरण आदि से प्राप्त करना है । 'संस्कार' शब्द प्रायः पूर्ण करने के अर्थ में व्यवहृत होता है जो पवित्रता एवं परिष्कार जैसी क्रियाओं को संपन्न करता है । कोशों में उसके लिये पूर्ण करने, शुद्ध करने, अंतःशुद्धि, पुण्यसंस्कार, पूर्व जन्म की वासनाओं को पुनर्जिवित करने, धार्मिक कृत्य, अनुष्ठान, भावना, विचारभाव, मनःशक्ति, कार्यवाही आदि विविध अर्थ मिलते हैं । सचमुच ! संस्कार अपनी इन विविध अपेक्षाओं को पूर्ण करता है । इसलिए संस्कार का एक और अर्थ हमें देखने को मिलता है । सुसंस्कृत करना। __मनुष्य के भाव एवं विचार ही उसके संस्कार माने जाते हैं । इन्हें शुद्ध करना एवं शुद्ध रखना ही सुसंस्कृत करना है । उन्हें शुद्ध इसलिए करना पड़ता है क्योंकि शुद्धिकरण के बाद उनमें योग्यता को धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है । इनका पुनरोद्धार करके इनको पुनर्जीवन भी प्रदान करना पड़ता है क्योंकि इसीके आधार पर विस्मृत तथ्यों को स्मृति के धरातल पर लाया जाता है । इस रूप में संस्कार - शुद्धिकरण एवं पुनर्जीवन जैसे दो जीवंत प्रक्रियाओं का ऐसा नाम है जिन्हें छोड़ पाना मनुष्य के लिए शायद ही कभी संभव हो । संस्कार के इसी अर्थ भाव का प्रकाशन शवर भाष्य में इस प्रकार हुआ है। संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है । संस्कार के द्वारा गुणों का विकास होता है और अर्हता की उपलब्धि होती है । अर्हता दो रूपों में प्राप्त होती है । क. पापमोचन गुणों से उत्पन्न अर्हता एवं ख. नवीन गुणों की प्राप्ति से उत्पन्न अर्हता। आचार्य अकलंक 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ में संस्कार के अर्थ स्पष्ट करते हुए उसे वस्तु का स्वभाव एवं स्मृति का बीज मानते हैं । आचार्य पूज्यपाद संस्कार की व्याख्या कुछ अलग ही रूप में करते हैं। अविद्या अथवा अज्ञानतावश जीव शरीरादि को पवित्र, स्थिर और आत्मीय समझने लगता है । यह भी एक प्रकार का संस्कार है और इस अज्ञान को दूर करने के लिए जिन प्रवृत्तियों का बार-बार अभ्यास किया जाता है वे भी संस्कार हैं । ज्ञान और अज्ञान वस्तुतः स्मृति के ही दो रूप है। एक सम्यक् एवं उपादेय है जबकि दूसरा मिथ्या एवं हेय है । लेकिन इन दोनों का आविर्भाव स्मृति के कारण ही होता है। स्मृति एक मानसिक प्रक्रिया है और शब्दकोशों में संस्कार को मानसी शिक्षा भी कहा गया है। मानसी शिक्षा से हमारा तात्पर्य शिक्षा की उस प्रविधि से है जिसमें मन को सम्यक भावों से इस प्रकार भावित किया जाता है जो व्यक्ति के मन में उठने वाले कुविचारों को शमन कर सके । अतः संस्कार को एक प्रकार का मानसिक प्रशिक्षण भी माना जा सकता है । उपर्युक्त चिन्तन संस्कार के विभिन्न भावार्थों को स्पष्ट करता है । संस्कार के उद्देश्य मानव जीवन में स्वीकृत संस्कारों का एक अलग महत्व है । क्योंकि इनके पीछे एक उद्देश्य रहता है जो विधेयात्मक भावों से पूर्ण रहता है । यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने संस्कार विधानों को अपनाए जाने हेतु एक अभियान छेड़ रखा था । उनके इस पराक्रम के पीछे उनके साधनामय जीवन का अनुसंधान रहा था । प्रायः अनायास एवं व्यर्थ ही किसी मान्यताओं और परंपराओं को अनुसरण करने की अपेक्षा उनको व्यवहार के धरातल पर कसकर एवं परख कर ही अपनाया जाता रहा है । यही बात संस्कारों के सन्दर्भ में भी लागू होती है । अतः आज जरूरत है संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति जैसे सुसंस्कारिक विधानों के पीछे छिपे रहस्यों एवं उद्देश्यों से जनमानस को अवगत कराना एवं उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करना। संस्कार के गर्भ में अनगिनत रहस्य और उद्देश्य छिपे हैं जिनके पीछे एक सुविचारित प्रयोजन निहित रहता है । यह मनुष्य को उसके सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के महत्व से अवगत कराना है । इसके कारण गुण संपन्न व्यक्तियों से संबंध स्थापित होता है । प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त होता है और व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक विरासत के महत्व को जानने लगता है । इन सबका व्यक्ति के ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है । वह यह तथ्य समझने लगता है - संस्कार एक नए जीवन का प्रारंभ है जिसके लिए नियमों के प्रति प्रतिबद्धता अपेक्षित है । उनके कारण मनुष्य में मानवीय मूल्यों की वृद्धि होती हैं जो व्यक्तित्व विकास एवं मानवता की रक्षा के लिए अनिवार्य है । संस्कार का प्रतिकात्मक महत्व माना गया है जो प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारे जैसे सद्गुणों को जीवित रखने में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति

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