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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
व्यसन और संस्कार
डॉ. रज्जन कुमार
व्यसन एवं संस्कार ये दो शब्द मात्र ही नहीं हैं बल्कि मानव व्यक्तित्व के निर्धारक भी हैं । कभी ये प्रशस्त अर्थ के वाचक बन जाते हैं तो कभी उन्हें अप्रशस्त भाव का सूचक भी माना जाता है । कुटेव अथवा दृष्प्रवृति इनके अप्रशस्त रूप हैं जबकि सद्प्रवृति एवं सम्यक् भाव उनका प्रशस्त प्रतिरूप है । उनके प्रशस्त स्वरूप की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है तथा अप्रशस्त प्रतिरूप की निंदा । आज चारों तरफ कुसंस्कारों एव कुव्यवसनों का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है । जिनके कुपरिणामों से सभी लोग त्रस्त हैं । अतः आज व्यसनमुक्ति एवं संस्कार निर्माण का चिन्तन एक सार्वभौमिक एवं प्रासगिक विचार बनता जा रहा है और इस दिशा में पर्याप्त प्रयत्न भी हो रहे हैं। व्यसन : अर्थबोध
• दोष, दुर्बल पक्ष, आसक्ति किसी कार्य में अत्यंत संलग्न होना, । व्यसन शब्द के उपर्युक्त अर्थ मनुष्य की ऋणात्मक वृत्ति के दूर रहने का परामर्श दिया जाता है । जैसा कि हम देख रहे
व्यसन शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे बहुत ज्यादा आदी होना, पतन, पराजय, हानि आदि द्योतक माने जा सकते हैं । प्रायः मनुष्य को इनसे हैं व्यसन के जो विविध अर्थ किए गए हैं उनमें से अधिकांशतः मनुष्य की प्रवृत्ति के बोधक हैं । इस प्रवृत्ति का कारण मनुष्य की लघुमति अथवा अल्पमति है । अपनी इस अल्पमति के प्रभाववश व्यक्ति प्रायः समीचीन मार्ग को त्यागकर कुत्सित मार्ग को अपना लेता है। क्योंकि वह उसे ही सम्यक्मार्ग समझता है । ये कई प्रकार के हो सकते हैं और उनके प्रकारभेद व्यसनभेद की भिन्नता के अनुरूप विविध हो सकते हैं ।
आचार्य पद्मनंदि की मान्यता है कि व्यसन कई प्रकार के होते हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी अल्पमति के कारण ग्रहण कर लेता हैं और उनसे प्रभावित होकर वह सम्यक् मार्ग को छोड़कर कुत्सित मार्ग की ओर आकर्षित होता है । कहने का अर्थ यह है कि कुमार्ग की ओर ले जाने वाली वे सारी प्रवृत्तियाँ जिनमें व्यक्ति अत्यधिक लिप्त रहता है, व्यसन कहलाता है। यह बहुत सारी हो सकती हैं । अब यहां एक जिज्ञासा उठती है कि व्यसन कितने हो सकते हैं । समाधान सहज भी है और कठिन भी, क्योंकि कुमार्ग की ओर ले जाने वाली सारी की सारी प्रवृत्तियां ही व्यसन हैं । अतष्व उस समस्या समाधान हेतु हम जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सप्तव्यसनों को सन्दर्भ रूप में प्रस्तुत करना चाहेंगे ।
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चूंकि व्यसन दोषयुक्त प्रवृत्ति का नाम है और दोषों की अनगिनत संख्या होने से व्यसन के प्रकार निर्धारण में समस्या आ सकती है और पाठकों को इन्हें समझने में भी भ्रांति हो सकती है । अतः उनसे बचने के लिए जैनाचार्यों ने उन सप्त व्यसनों को ही प्रमुखता ही माना है जो व्यक्ति को अधिक भ्रष्ट करने की क्षमता रखते हैं। जूआ, मांस भक्षण, सुरापान, वेश्यागमन, शिकार कर्म, चौर्यकर्म एवं परस्त्रीगमन ये सात महाव्यसन हैं। इन्हें महापाप भी कहा गया है । इनमें से प्रत्येक व्यसन अत्यंत घृणित एवं निंदनीय माना गया है । इन्हें हिंसक विचारों एवं पतित वृत्तियों का पोषण करने वाला महा विनाशक कर्म कहा गया है । प्रत्येक व्यक्ति को उनसे मुक्त रहने का परामर्श दिया गया है । क्योंकि ये सारे व्यसन मनुष्य की उस आसक्तिवृत्ति के परिणाम हैं जो उन्हें सर्वदा कुपथ की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं ।
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
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रीडर, अनुप्रायुक्त दर्शनशास्त्र, महात्मा ज्योतिबाफुले विश्वविद्यालय, बरेली (यू.पी.)
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