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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अथवा जिन चौमुखी का निर्माण किया जाना मथुरा के शिल्पकारों की महत्वपूर्ण देन है। ऐसी मूर्तियों में चार तीर्थंकरों को चौकोर स्तंभ जैसे वास्तु के चार पटलों पर अलग अलग दिखलाया गया। इनमें कंधों तक केश वाली मूर्ति को ऋषभनाथ (आदिनाथ), सर्पयुक्त मूर्ति को पार्श्वनाथ से पहचाना जा सकता है। दो अन्य मूर्तियों में एक अंकन 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का रहा होगा। कुषाण काल के बाद भी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा का निर्माण होता रहा किन्तु इनमें एक ही तीर्थंकर को चार पटलों पर दिखलाया गया ।
मथुरा के कुषाण कालीन शिल्पकारों की अन्य महत्वपूर्ण देन कुछ तीर्थंकरों एवं साधुओं के जीवन की घटनाओं का चित्रण करना है । एक फलक पर ऋषभनाथ के जीवन की महत्वपूर्ण घटना चित्रित है । इसमें वैराग्य से पूर्व ऋषभदेव को नीलान्जना नामक अप्सरा का नृत्य देखते हुए दिखलाया गया है । नर्तकी का समय जैसे ही पूरा हुआ इन्द्र ने दूसरी नर्तकी प्रकट कर दी । ऋषभनाथ से यह बात छिपी न रह सकी । उन्हें संसार एवं जीवन की निस्सारता का बोध हुआ और राजपाट छोड़कर साधु हो गये । जैन साहित्य में इस घटना का विशेष उल्लेख प्राप्त है । एक अन्य फलक पर महावीर के भ्रूण को ब्राह्मणी के गर्भ से हटाकर क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित करने की कथा का चित्रण है । इन्द्र के आदेश पर यह कार्य हिरनेगमेषी, जो कि बालकों के देवता हैं, ने किया था। इस फलक पर मेषसिरयुक्त नेगमेष का चित्रण है। इस घटना का कल्पसूत्र में भी उल्लेख है ।
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गुप्तकाल में जैन मूर्ति निर्माण के केन्द्रों का विस्तार हुआ । मथुरा के अतिरिक्त अन्य स्थलों पर मूर्ति निर्माण, प्रारम्भ हुआ । मथुरा के शिल्पकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों लखनऊ तथा मथुरा के राजकीय संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं । इन मूर्तियों के माध्यम से आत्मिक सौन्दर्य को दिखलाने का प्रयास किया गया । मूर्तियों के दर्शन से वासना के स्थान पर आध्यात्मिक भावना का जागरण होता है । इस मूर्तियों में तीर्थंकर का प्रभामण्डल अत्यन्त मनोरम एवं मनोहारी है । लखनऊ संग्रहालय में गुप्तकालीन कई पाषाण मूर्तियां (सं. जे. 139, जे. 121 ओ. 131, जे. 104 आदि) संग्रहीत है जिनका निर्माण मथुरा के शिल्पकारों ने किया था । 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्ति (जे. 2) पर संवत् 299 उत्कीर्ण है । यह पाठ विवादास्पद है । इस मूर्ति को एक स्त्री, जो ओखरिका की पुत्री थी, ने अर्हतों के मन्दिर, जो कि देवकुल रहा था, में स्थापित कराया था । महावीरस्वामी को खड़े हुए दिखलाया गया जिसमें पैरों का कुछ भाग मात्र अलंकृत पादपीठ पर बचा रहा गया है । अवशिष्ट भाग से प्रतीत होता है कि उपरोक्त मूर्ति अत्यन्त सुन्दर रही थी। कुछ मूर्तियों (जे. 119, जे. 89) की पहचान नेमिनाथ से की जा सकती है क्योंकि इनमें बलराम और कृष्ण का भी अंकन है । मूर्ति सं 49.199 में तीर्थंकर का बालकवत् अंकन है । मथुरा की गुप्ताकलीन मूर्तियों में अधिकांशतया आधार भाग धर्मचक्र का अंकन है । कुछ में गगनचारी विद्याधर में तीर्थंकर को खड़े ती पहने दिखलाया गया है ।
जैन धर्म सम्बन्धी अन्य गुप्तकालीन मूर्तियों के अवशेष कई स्थलों से उद्घाटित हुए हैं । विहार के राजगिरि ( वैभार पहाड़ी से ) नेमिनाथ की मूर्ति उपलब्ध हुई है । इसके आधार पर चक्र बना हुआ है । विदिशा से तीन मूर्तियां मिली हैं जिन पर महाराजाधिराज रामगुप्त के समय के अभिलेख उत्कीर्ण हैं । इन पर अन्तिम कुषाण कालीन शैली की छाप है। उदयगिरि (विदिशा के निकट, म. प्र.) की पहाड़ी पर जहां सम्राट कुमारगुप्त के समय का अभिलेख है, पार्श्वनाथ की गुप्तकालीन मूर्ति उत्कीर्ण है । इसी प्रकार कहौम (उत्तर प्रदेश) से एक पाषाण स्तम्भ मिला है जिसके आधार पर पार्श्वनाथ का चित्रण है तथा ऊपर शीर्ष पर चार तीर्थंकरों का अंकन है ।
पूर्व मध्यकालीन समाज ने जैन धर्म को विशेष प्रोत्साहन दिया । फलतः भारत के विभिन्न भागों में मन्दिरों का विशाल पैमाने पर निर्माण हुआ। यह मन्दिर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के हैं। इन मन्दिरों में अधिकांशतया 24 तीर्थंकरों की मूर्तियों को प्रतिष्ठापित किया गया । तीर्थंकर की मूर्तियाँ, जो इस काल में बनी, अलंकरणों तथा अष्टप्रतिहार्यों से युक्त बनायी गयी । मुख्य मूर्ति के साथ तीर्थंकर विशेष के यक्ष एवं यक्षी को भी दिखलाया गया । श्रवणवेलगोला जैसी विशालकाय मूर्ति का निर्माण इसी कालावधि में सम्भव हुआ । इस काल की बहुत सी मूर्तियों अभिलिखित पायी गयी हैं जिनसे मूर्ति के दानकर्ता, उद्देश्य, गण, संवत, तिथि आदि की
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