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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
नहीं करते हों, हमारी समाज में यह प्रचलित भी न हो पर बहुत से त्रसकाय जीवों का घात / प्रतिघात तो जाने-अनजाने में हम कर ही बैठते हैं। त्रसकाय जीवों के शरीर का अंश का नाम ही मांस है । दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव सकाय जीव कहलाते है अतः मांस खाते में न केवल उस एक त्रसजीव की हिंसा का दोष है जिसे मारा गया है, अपितु उससे उत्पन्न अनेक जीवों के जन्म-मरण का दोष भी विद्यमान हो जाता है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने मांस का निषेध स्पष्ट रूप से इस प्रकार किया है
"न बिना प्राणिविधाताम्मां सस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् ।
मांसं भजतस्तस्मात् प्रसख्यनिवारिता हिंसा || यदपि किल भवति मांसां स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रित निगोत निर्मयनात् ॥ आमावपि पक्वास्वपिविपच्यमानासु मांसापेशीषु ।
सातत्येनोत्यादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ||
आमा वा पक्वां वा खादाति यः स्पृशति व पिशितपेशीम् ।
स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटी नाम् ॥”
अन्त में मैं तो यही कहूंगी कि शुद्ध, सात्विक व सरल जीवन के बिना सुख-शान्ति संभव नहीं है । इसके लिए हमें अपने भोजन - भजन पर सचेत रहना होगा । हम जैसा भोजन-भजन करेंगे हमारे भीतर वैसे ही भावों की उत्पत्ति होगी । हमारा आचरण उससे प्रभावित होगा । अतः शुद्ध शाकाहार वही है जिसके प्रयोग से प्रमाद की स्थिति न हो और हम चेतन्यता के साथ धर्म-साधना में उन्मुख हो सके। तभी उत्तम आहार शाकाहार की सार्थकता हो सकती है ।
समय की गतिविधि और लोकमानस की रुख को भलि भाँति समझ कर जो व्यक्ति अपना सद्व्यवहार चलाता है वह किसी तरह की परे पानी में नहीं उतरता। जो लोग हठाग्रह या अपनी के वा उक्त वात का अनादर करते हैं वे किसी भी जगह लोगों का प्रेम सम्पादन नहीं कर सकते और न अपने व्यवहार में लाभ पा सकते हैं। अतः प्रत्येक मानव को समय की कदर करना और लोकमानस की रुख को पहचान कर कार्यक्षेत्र में उतरना चाहिये।
मेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
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मंगल कलश, 394 सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ 202 001.
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श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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