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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
तक जारी रहती है । तत्पश्चात सक्रिय निद्रा की स्थिति लगभग उतने ही समय तक रहती है । उसको REM Sleep कहते हैं, क्योंकि उसमें आंखे शीघ्रता से हिलती रहती हैं (Rapid eye Movements) | इसी अवस्था में अधिकतम स्वप्न दिखायी देते हैं । ये दोनों अवस्थाएं एक के बाद एक क्रमशः आती रहती हैं । दोनों के बीच में गाढ़ निद्रा (deep sleep or delta sleep) की स्थिति बीच बीच में पंद्रह बीस मिनटों तक आ सकती है । इनमें व्यक्तिगत असमानताएं बहुत अधिक देखी गयी हैं । मानसिक परेशानियों के कारण भी निद्रा के क्रम में बदलाव आता है ।
स्वप्न में कभी यह स्वप्न है ऐसा ज्ञान नहीं होता । उस की घटनाएं हमेशा जागृति जैसी ही लगती हैं । स्वप्न के प्रसंग ज्यादातर उस दिन के प्रत्यक्ष अनुभवों पर ही आधारित रहते हैं । या फिर तीव्र भावनाओं से, भय से, या सुख या दुःख की अधिकता से जुड़े हुवे अनुभवों से स्वप्न अधिक प्रभावित रहते हैं । स्थिर और शांत मन में स्वप्न नहीं आते । अस्थिर मनोवृत्ति स्वप्नों के लिये अनुकूल होती है | जन्मांध व्यक्ति या कर्णवधिर, गूंगे व्यक्ति के स्वप्नों में दृश्य का या ध्वनि का कोई आविष्कार नहीं होता । अधिकतर स्वप्न तुरन्त भूल दिये जाते हैं । जगने के बाद कुछ क्षणों तक ही उनकी स्मृति रहती हैं । दैनिक जीवन में हमारी अनेक इच्छाए अपूर्ण रहती हैं । उनको हम स्वप्नों में पूरी हुई देखने से तनाव से मुक्त हो सकते हैं । तनावों से मुक्ति के एक साधन के रूप में स्वप्नों का यह कार्य मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है ।
स्वप्न में संत महात्माओं के दर्शन, किसी कठिन समस्या का हल मिल जाना, भविष्य की किसी घटना का पूर्व आभास मिलना, या भक्ति तथा साधना से संबंधित अत्यंत उत्कट, सुखद अनुभव मिलना, ऐसी अद्भुत बातें हममें से अनेक के जीवन में आती हैं । उनके कारण कई लोगों के मन में स्वप्न एक गूढ़ विषय बना है । उसका आकर्षण मनुष्य को हमेशा रहा है और रहेगा इतना हम निश्चित रूप से कह सकते हैं ।
एफ-305, रम्यनगरी, पुणे-411 037
बिषयभोग बड़वानल के सदृश है। युवावस्था भयानक जंगल के समान है। शरीर ईंधन के और वैभवादि वायु के समान हैं। संयोग तथा वैभवादि विषयाग्नि प्रदीप्त करनेवाले हैं। जो स्त्री, पुरुष संयोगजन्य भोगसामग्री मिल जाने पर भी उसका परित्याग करके अखंड ब्रह्मचारी स्त्री, पुरुषों का इतना भारी तेज होता है कि उनकी सहायता में देव, दानव, इन्द्र आदि खड़ें पैर तैयार रहते हैं और इसी महागुण के कारण वे संसार के पूजनीय और वंदनीय बन जाते हैं।
व्यभिचार सेवन करना कभी सुखदायक नहीं। इससे परिणामतः अनेक व्याधि तथा दुःखों में घिरना पडता है। उक्ति भी है कि 'भोगे रोगभयं' विषय भोगों में रोग का भय है, जो वास्तविक कथन है। व्यक्तिमात्र को अपने जीवन की तंदुरस्ती के लिये परस्त्री, कुलांगना, गोत्रजस्त्री, अंत्यजस्त्री, अवस्था में बड़ी स्त्री, मित्रस्त्री, राजराणी, वेश्या और शिक्षक की स्त्री; इन नौ प्रकार की स्त्रियों के साथ कभी भूल कर के भी व्यभिचार नहीं करना चाहिये। इनके साथ व्यभिचार करने से लोक में निन्दा और नीतिकारों की आज्ञा का भंग होता है, जो कभी हितकारक नहीं है।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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