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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
गजनीखाँ मांडव का शासक बने तब वह धनराशि वह धरणा को लौटा दे । धरणा ने ही कालांतर में गजनीखाँ को समझा-बुझाकर उसके पिता होशंगशाह के पास मांडू के लिये प्रस्थित करवाया था । सुलतान होशंगशाह को धरणा के इस कार्य ने बड़ा प्रसन्न किया।
पुरातत्वीय साक्ष्य भी होशंगशाह के समय जैन धर्म के पल्लवन का प्रमाण देते हैं । उज्जैन के नमकमंडी दिगंबर जैन मंदिर में पीतल की एक प्रतिमा है जिस पर अंकित लेख के अनुसार वह होशंगशाह के शासन के अंतिम वर्ष की सिद्ध होती है । मोहम्मदशाह गोरी (1435-36)
होशंगशाह के समय मांडव के दरबारियों के दो समूह हो गये थे । एक समूह का नेता शहजादा उथमनखाँ था तथा दूसरे समूह का नेता शहजादा गजनीखाँ था । होशंगशाह ने गजनीखाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था । यह करना घातक रहा । 8 जुलाई, 1435 ईस्वी को गजनीखाँ मोहम्मदशाह गोरी के नाम से मालवा का सुलतान बना । महमूदखाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया था । दुर्भाग्यवश नया सुलतान अत्यधिक शराबी निकला | उसने सारा शासन प्रशासन अपने श्वसुर मलिक मुगीस तथा अपने साले व संरक्षक महमूदखाँ के हाथों में केन्द्रित कर दिया । परिणाम अच्छा नहीं निकला । अवसर देखकर महमूदखाँ ने मोहम्मदशाह को जहर देकर मार दिया। 18 अप्रैल, 1436 ईस्वी को सुलतान मोहम्मदशाह संसार से बिदा हो गया । गजनीखाँ का शासन अत्यन्त ही अल्पकालीन था । उसने नांदिया ग्राम से धरणाशाह को मांडव आमंत्रित किया । उसने उससे उधार लिये तीन लाख रुपयों के बदले में उसे छ: लाख रुपये प्रदान किये और दरबार में उच्च पद प्रदान किया । बादशाह का धरणा के प्रति यह अति स्नेह मांडव के अन्य अमीरों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मोहम्मदशाह के कान भरना प्रारंभ कर दिये । कमजोर मनोबल वाले सुलतान ने संघ यात्रा पर निकले धरणा को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया । धरणा की रिहाई के लिये श्रीसंघ ने अनेक प्रयास किये किन्तु वे व्यर्थ सिद्ध हुए। अंत में धरणा को एक लाख मुद्राएं देकर स्वयं को मुक्त कराना पड़ा । जब मोहम्मदशाह को अपदस्थ कर महमूद खिलजी ने शासन संभाला तो उचित अवसर देख धरणाशाह मांडव से निकल भागा"। महमूद खिलजी (प्रथम)
सन् 1436 से 1469 ईस्वी तक महमूदखाँ मांडव का सुलतान रहा । वह खिलजी वंश का था और इस कारण मालवा का सुलतानवंश उसी के साथ परिवर्तित हो गया । सिंहासन पर बैठने पर उसने अपने पिता मलिक मुगीस को "निजाम-उल-मुल्क' की उपाधि प्रदान कर उसे वजीर के पद पर नियुक्त किया । सन् 1442 ईस्वी तक उसने अपने आपको पूरी तरह स्थापित कर लिया। महमूद खिलजी भी जैन धर्म के प्रति सहिष्णु और संरक्षक सिद्ध हुआ। उसके समय में मंडन के चार पुत्र पूजा, जोगा, संग्रामसिंह व श्रीमल्ल को मांडव में विशेष स्थान प्राप्त था । इसके अतिरिक्त भी मांडव इस समय अनेक सम्पन्न जैन व्यापारियों का केन्द्र था । इन व्यापारियों ने जैन कल्पसूत्रों के पुनर्लेखन का काफी धन अनुदान के रूप में दिया तथा मांडव में अनेक आकर्षक जिनालयों का निर्माण करवाया। सन् 1450 ईस्वी में ओसवंशीय आनंद मुनि ने "धर्म लक्ष्मी महतरा-भाख" नामक अपने ग्रंथ में रत्नाकर गच्छ के रत्नसिंह सूरि के समुदाय की धर्मलक्ष्मी महतरा का ऐतिहासिक परिचय दिया । नरवर नामक स्थान में सन् 1459 ईस्वी में खरतर गच्छ की पिटपलक शाखा के संस्थापक विद्वान् जैनावार्य जिनवर्द्धन सूरि के शिष्य न्यायसुन्दर उपाध्याय ने “विद्या-विलास-नरेन्द्र" नामक चौपाई की रचना की । सन् 1468 ईस्वी में मुनि मेरुसुंदर ने मांडव दुर्ग में संघपति धनराज के अनुरोध पर "शीलोपदेशमाला बालावबोध' की रचना की । उस समय पूरा निमाड़ अनेक जैन तीर्थों से युक्त था । मांडव के अतिरिक्त तारापुर, सिंघाना, तालनपुर, नानपुर, चिकली-ढोला तथा लक्ष्मणी आदि स्थानों पर जिनालय विद्यमान थे । इसी सुलतान महमूद खिलजी का एक मंत्री मांडव-निवासी जैनचन्द्र साधु था जो चांदासाह के नाम से जाना जाता था। चांदासाह एक कुशल राजनीतिज्ञ और जैन धर्म का प्रबल
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