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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
लोक-जीवन में लौकिक मान्यता के अनुसार त्याग और दान को पर्याय वाची माना गया है । ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं नहीं । कुछ अंशों में ये दोनों-त्याग और दान परस्पर में विरोधी स्वभाव के प्रतीत हो उठते हैं । उदाहराणार्थ आत्मिक स्वभाव क्षमा का दान तो किया जाता है पर उसका त्याग त्रिकाल में नहीं किया जाता । इतना अवश्य है कि दान देने से त्याग के संस्कार अवश्य प्रोन्नत होते हैं ।
दान के संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है । दान में तीन पात्रताएं अपेक्षित होती हैं - यथा
1.
दातार ।
2 दान में दी जाने वाली वस्तु | 3. वह व्यक्ति जिसको दान दिया जाता है ।
त्याग में इन तीन पात्रताओं के स्थान पर केवल दो ही पात्रताएं अपेक्षित होती हैं - यथा 1. त्यागी - वह व्यक्ति जो त्याग करता है । 2. वह वस्तु जिसका त्याग किया जाता है ।
दान में पराधीन क्रिया की प्रधानता रहती है जबकि त्याग में पूर्णतः स्वाधीनता रहती है । दान वस्तुतः पुण्यात्मक कर्म का परिणाम होता है और त्याग है आत्मा का स्वभाव ।
धर्म शास्त्र में दान चार प्रकार का कहा है - यथा 1. आहारदान 2. औषधिदान
3. अभयदान 4. ज्ञानदान
दान विषय अन्य अन्य संदर्भ इन्हीं भेदों में अन्तर्मुक्त हो जाते हैं । आहार और औषधि दान में प्राणियों को भोजन और औषधि दी जाती है जबकि आहार और औषधि त्याग में क्रमशः आहार और औषधि का स्वयं सेवन करने का त्याग किया जाता है फलस्वरूप त्याग में भोजन तथा औषधि का अन्य किसी को देने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी प्रकार अभयदान और ज्ञानदान में अभय और ज्ञान के त्यागने का प्रश्न ही नहीं उठता किन्तु इन दोनों का दान तो दिया जा सकता है।
आहार दान से तात्पर्य हैं भूखे को आहार जुटाना । चौका की संस्कृति से अनुप्राणित भोजन और चौका का घनिष्ठ सम्बन्ध है । क्षेत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, काल शुद्धि और भाव शुद्धि का समवेत रूप चौका के स्वरूप को स्थिर करता है । चौका की संस्कृति से अनुप्राणित किसी भी सत्पात्र को भोजन कराना आहारदान की उत्तम अवस्था है।
औषधिदान करते समय दातार को औषधि का सूक्ष्म ज्ञान होना आवश्यक है । औषधिदान में दातार में रोग और उसका निदान विषयक बोध होना उसमें चार चाँद लगा देता है । सत्पात्र को उपयुक्त औषधि का दान देना वस्तुतः अत्यन्त उपयोगी होता है ।
अभयदान से तात्पर्य है जो भी प्राणी भयभीत है, उसे वस्तुतः भयमुक्त करना अभयदान है | कौन कर सकता है अभय दान? जो स्वयं भयभीत है वह तोप-तीर तलवार से क्या किसी को भय मुक्त कर सकता है? विचार कीजिए जब सत्व में समत्व का संचार हो उठता हैं और अन्ततः उसमें सम्यक्त्व का उदय हो जाता है तब कहीं उसमें निर्भयता के संस्कार मुखर हो उठते हैं । सार और संक्षेप में कह सकते हैं कि सम्यक दृष्टि जीव सदा निर्भय होता है और वही दूसरों को अभयदान दे सकता है ।
हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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31 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति।
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