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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
विद्वान और बुद्धिमान दो शब्द है उनकी अपनी-अपनी स्वतंत्र आर्थिक सत्ता है । पुस्तकों के अध्ययन अनुशीलन से विद्वान् बना जाता है, जबकि बुद्धिमत्ता मतिज्ञान की प्रखरता से प्रदीप्त होती है । विद्वान के लिये बुद्धिमान होना आवश्यक नहीं होता । बुद्धिमान के लिये विद्वान् होने की अनिवार्यता कोई महत्व नहीं रखती । ज्ञान दान का सीधा और शाश्वत सम्बन्ध बुद्धिमान से होता है। आज हर पढ़ा लिखा व्यक्ति दूसरे को ज्ञानदान दे उठता है । ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक जिस साधक ने ध्यान में जाने की क्षमता जाग्रत करती है, उसीमें वस्तुतः ज्ञान दान देने की शक्ति उद्भूत होती है । वह अपनी चारित्रिक भाषा में सत्पात्र को ज्ञान दान देने की चेष्टा करता है ।
दान की सत्पात्रता चतुर्विध संघ में होती है । साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका मिलकर चतुर्विध संघ के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं । इसके अतिरिक्त जिस प्राणी की दशा और दिशा में सन्मार्ग मुखी परिवर्तन की सम्भावना मुखर हो उठे, उस पात्र को भी दान देना सार्थक माना गया है। जीव दया हेतु दान देना वस्तुतः धार्मिक संस्कारों का सुपरिणाम होता है।
सद्गृहस्थ की सफलता हेतु जैनाचार्यों ने षट् आवश्यकों की जानकारी और उनका शक्तिभर नैत्यिक प्रयोग और उपयोग करना वस्तुतः अनिवार्य माना गया है । देवदर्शन / स्मरण, गुरुवंदन, संयम, तप स्वाध्याय और दान से छह शुभ संकल्प षट् आवश्यक कहलाते हैं । इससे गृहा में प्रत्येक प्रारभी के प्रति दया, सौहार्द्र और परोपकार जैसे शुभ संस्कार उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार के उदत्त संस्कार माननीय विकास के लिये परम आवश्यक प्रमणिगत होते हैं । दान देना वस्तुतः मनुष्य की उत्तम प्रवृति है। आज के आपा धामी प्रधान जन-जीवन में सुख और सन्तोष का वातावरण उत्पन्न करने के लिये दान देने के शुभ संस्कारों की आवश्यकता असंदिग्ध है ।
हेमेला ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़
चोरी, स्त्रीप्रसंग और उपकरण संग्रह ये तीनों बातें हिंसामूलक हैं और संयम साधकों को इनका सर्वथा परित्याग कर देना ही लाभकारक है अजैन भाास्त्रकारों का भी मन्तव्य है कि जो संन्यासी चोरी, भोगविलास और माया का संग्रह करता है वह कनिश्ठ योनियों में बहुत कालपर्यंत भ्रमण करता रहता है। इसी प्रकार 1 गृहस्थ की आज्ञा के बिना उसके घर की कोई भी वस्तु वापरना, 2- किसी की बालक बालिका या स्त्री को फुसला कर भगा देना, 3 और जिने वर निशेधित बातों का आचरण अथवा भाास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करना और 4 गुरु या वड़ील की आज्ञा के बिना गोचरी लाना, खाना या कोई भी वस्तु किसीको देना-लेना ये चारों बातें चोरी में ही प्रविश्ट है अतः संयमी साधुओं को इन बातों से भी सदा दूर रहना चाहिये, तभी उसका संयम सार्थक होगा।
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मंगलकलश 202 001
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
हेमेजर ज्योति ज्योति