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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
हुए थे । ये दोनों एक बार तीर्थ यात्रा को गये, जहां गिरनार में इन दोनों ने रंगमंडन मुनि से जैन-दीक्षा ग्रहण की । इनमें से एक का नाम ब्रह्मकुमार था जो कालांतर में ब्रह्ममुनि पार्श्वनाथसूरि की परंपरा में विनयदेव सूरि नामक आचार्य बने ।
नासिरूद्दीन के काल में ऐसा लगता है, जैन कला और स्थापत्य का लम्बा सिलसिला समाप्त होने लगा था। आश्चर्यजनक रूप से हम उसके राज्य-काल में जैन-प्रमिमाओं का अभाव-सा पाते हैं । दो कारणों से इस समय जैन मत की गति कुंठित हो गई थी । पितृहंता नासिरूद्दीन जैन समाज का चहेता नहीं था दूसरी ओर नासिरूद्दीन के बदमिजाज और शराबी व्यक्तित्व से जैन समाज की कोई संगीति नहीं मिल पा रही थी । मांडव के जैनियों में पारस्परिक ऐक्य न होने से दरबार में उनकी विरोधी मुस्लिम लाबी भी महत्वपूर्ण हो गई थी। जिसका स्पष्ट प्रमाण नासिरूददीन की मृत्यु के बाद देखने को मिला ।
नासिरूद्दीन खिलजी के एक दशक का यह राज्यकाल जैन धर्म के लिये मिश्रित उपलब्धियों वाला था क्योंकि जहां एक ओर मालवा में सत्ता वर्ग में जैन धर्म का विरोध प्रारंभ हो गया था, वहीं दूसरी ओर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय अपनी स्थिति को दृढीभूत करने के प्रयास में । फिर भी ऐसा लगता है कि उन्हें इस काल में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही थी। महमूद खिलजी द्वितीय (1511-1531 ईस्वी)
महमूद को मालवा का सुलतान बनने के पूर्व अपने भाई शहाबुद्दीन मोहम्मद द्वितीय से गृह-युद्ध लड़ना पड़ा था । ऐसी स्थिति में महमूद ने एक राजपूत नेता मेदिनीराय के सहयोग से सुलतान पद प्राप्त किया । इस घटना से मेदिनीराय का प्रभाव पर्याप्त बढ़ गया । सुलतान ने उसको हटाने का प्रयास किया किन्तु यह संभव न देख मालवा का सुलतान गुजरात चला गया और वहां के सुलतान की सहायता से उसने पुनः मालवा का शासक बनने का प्रयास किया, किन्तु चित्तौड़ के महाराणा सांगा ने बीच में ही उसे कैद कर लिया । काफी कुछ भेंट देकर ही महमूद मांडव लौट सका | महमूद का मांडव लौटना उसके लिये घातक सिद्ध हुआ क्योंकि गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने सन् 1531 ईस्वी में मांडव पर आक्रमण कर उसे उसके सात पुत्रों सहित बंदी बना लिया । गुजरात ले जाते हुए उसे रास्ते में ही मार डाला गया । इस तरह मांडव से खिलजी शासन का अंत हो गया"।
महमूद के राज्यकाल में मुस्लिम अमीर पुनः प्रभावशाली हो गये । मेदिनीराय का पतन हो गया । बसंतराय जैसा शक्तिशाली राजनीतिज्ञ मारा गया तथा संग्रामसिंह सोनी को मालवा से निष्कासित किया गया । इस घटनाओं का जैन समाज के अस्तित्व पर प्रभाव पड़ा । मालवा दरबार में जैन प्रभाव लगभग समाप्त हो गया । उनका व्यापार व्यवसाय दिन पर दिन कम होता चला गया और धीरे-धीरे वे या तो मारे गये या मालवा से पलायन कर गये । ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के जैन-निर्माण की परिकल्पना व्यर्थ ही है ।
मालवा के सुलतानों के समय जैन धर्म ने उल्लेखनीय प्रगति की । चाहे राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र, प्रशासकीय दायित्य हो या निर्माण कार्य, सर्वत्र जैन प्रशासकों एवं श्रेष्ठियों की तूती बोलती रही । सांस्कृतिक क्षेत्र में महाकवि मंडन तथा प्रशासकीय क्षेत्र में संग्रामसिंह सोनी, इस काल के दो महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे जो मालवा के इतिहास के अत्यंत ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों में परिगणित किये जा सकते हैं।
खिलजियों के पतन के उपरांत मांडू पर क्रमशः अफगान एवं मुगल सत्ता पर आये । मुगल सम्राट अकबर द्वारा मालवा को अन्तिम रूप से जीत लिये जाने के साथ ही मांडू का वैभव जाता रहा । यद्यपि मुगल काल में भी मालवा में जैन धर्म का प्रभावी अस्तित्व बना रहा किन्तु मध्यकालीन मालवा के जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र मांडव से तो उसकी बिदाई ही हो गई।
माहेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 25
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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