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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
अन्त में ज्ञान का यह विकास सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान में अपनी अन्तिम पराकाष्ठा को प्राप्त होता है । इस तरह योग के अष्ट अंगों का अनुष्ठान करने पर चित्त के अशुद्ध मल का नाश और विवेकख्याति-सम्यग्ज्ञान का प्रादुर्भाव-ये दो फल निष्पन्न होते हैं । योग के अष्टांगों में यम,नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पांच बहिरंग साधन हैं और धारणा, ध्यान तथा समाधि ये तीनों अन्तरंग साधन कहे गये हैं। पांच अंग चित्तगत मल के क्षय करने में सहायक हैं और अन्त के तीन अंग विवेकख्यातोदय केवलज्ञान प्राप्त करने में सहायभूत हैं ।
उक्त अष्टांगों का स्वरूप-फल और इनकी साधना से मिलने वाली लब्धियों का पातंजलयोगदर्शन में बड़ा ही विस्तृत और परम व्यवस्थित विवेचन किया गया है । जैन दर्शन में उक्त योगांगों का आगमविहित स्वरूप क्या है? बस इसी स्थूल विषय का दिग्दर्शन यथामतिकरवाना ही इस लघु निबन्ध का उद्देश्य है।
1. यम - योग के आठ अंगों में सर्वप्रथम स्थान यम का है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचो महाव्रतों की संज्ञा 'यम' है । जैनागमों में इन पांचों की महाव्रत और अणुव्रत संज्ञा है । जैनागमों में और पातंजलयोगदर्शन मे इस विषय में कहीं-कहीं क्वचित्त वर्णन-शैली की भिन्नता के सिवाय कुछ भेद नहीं है । उक्त पांचों यमों (व्रतों) को त्रिकरण-त्रियोग से पालन करने वाला सर्वविरति-साधु-श्रमण-भिक्षु और देशतः परिपालन करने वाला देशविरति-श्रमणोपासक या श्रावक कहलाता है ।
1. अहिंसा - पांच यमों में प्रथम स्थान अहिंसा का है । “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमत्तयोग से होने वाले प्राणवध को, वह सूक्ष्म का हो या बादर का -त्रस का हो या स्थावर का, हिंसा कहते हैं । हिंसा की व्याख्या-कारण और कार्य इन दो भेदों से की गई हैं । प्रमत्तयोग-रागद्वेष या असावधान प्रवृत्तिकारण हैं
और हिंसाकार्य । तात्पर्य यह है कि प्रमत्तभाव में होने वाले प्राणी वध को हिंसा कहते हैं । ठीक इससे विरूद्ध अप्रमत्तभाव में रमण करते हुये रागद्वेषावस्था से परे रहकर प्राणिमात्र को कष्ट नहीं पहुंचाना अहिंसा है ।
2. सत्य-असदभिधानमनृतम् । असत्य बोलने को अनृत कहते हैं । भय, हास्य, क्रोध, लोभ, राग और द्वेषाभिभूत हो सत्य का गोपन करते हुये जो वचन कहा जाय वह असत्य है । और विचारपूर्वक, निर्भय हो, क्रोधादि के आवेश से रहित हो तथा अयोग्य प्रपंचों से रहित होकर जो वचन हित, मित और मधुर गुणों से समन्वित कर के कहा जाय वह सत्य है । वह सत्य भी असत्य है कि जो पराये को दुःखदायी सिद्ध हो । सत्य के श्री स्थानाङ्गसूत्र में दस प्रकार दिखलाये हैं । 1. जनपद सत्य । 2. सम्मत्त सत्य । 3. स्थापना सत्य । 4. नाम सत्य । 5. रूप सत्य । 6. प्रतीत सत्य । 7. व्यवहार सत्य। 8. भाव सत्य | 9. योग सत्य और 10. उपमान सत्य ।
3. अस्तेय - "अदत्तादानं स्तेयम्" वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना ही वस्तु ग्रहण करना, फिर वह अल्प हो या बहुत, पाषाण हो या रत्न, छोटी हो या बड़ी, सजीव हो या अजीव उसको रागवश या द्वेष-वश होकर लेना स्तेय-तस्कर वृत्ति है । धन यह मनुष्यों का बाह्य प्राण हैं, अंतएव उसे उसके स्वामी की आज्ञा के बिना लेना प्रत्यक्ष रूप से हिंसा है ।
4. ब्रह्मचर्य - "मैथुनमब्रह्मः" मैथुनवृत्ति को अब्रह्म कहते हैं । याने कामवासनामय प्रवृत्तियों में प्रवर्तमान रहना अब्रह्म है और कामवासना की कुप्रवृत्तियों से त्रिकरण-त्रियोगतः परे रहना ब्रह्मचर्य है । श्रीसूत्रकृतांग सूत्र में कहा है कि -
"तवेसु उत्तमं बम्भचेरं" तपों में उत्तम ब्रह्मचर्य हैं | श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य का महत्व दिखलाते हुये कहा गया है कि - "ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठ प्रकार से परिपालन करने से शील, तप, विनय,संयम, क्षमा, निर्लोभता और गुप्ति इन सब की आराधना सुलभ बन जाती है । ब्रह्मचारी को इस लोक में और परलोक में यशकीर्ति और लोक में विश्वासपात्रता मिलती है ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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