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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
मेवाड़ के गौरव हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप ने आचार्य हीरविजयसूरि के व्यक्तिगत और कृतित्त्व से प्रभावित होकर उन्हें पत्र लिखा था और आगरा से लौटते वक्त मेवाड़ पधारने का अनुरोध किया था । मेवाड़ी भाषा में लिखे गए डेढ़ पृष्ठ के इस पत्र के अन्त में 'प्रवानगी पचोली गोरो समत् 1635 रा वर्षे आसोज सुद 5, गुरुवार आलेखित है । महाराणा के निवेदन पर हीरविजयसूरि मेवाड़ प्रदेश की यात्रा पर आये थे । एक बार उन्होंने ससंघ खंभात से चित्तौड़गढ़ की यात्रा भी की थी।
सिरोही स्टेट व उसके शासक महाराव सुरताण आचार्य के विशेष प्रिय थे । 13 वर्ष की उम्र में ईस्वी सन् 1540 में गुजरात के पाटण शहर में दीक्षित हुए हीरविजयजी को 27 वर्ष की युवावस्था में सन् 1554 में सिरोही में ही आचार्य पद से विभूषित किया गया था । अपने गुरु के इस विशेष समारोह को सफल बनाने के लिए सिरोही दरबार ने कई प्रबंध किये थे ।
महाराव सुरताण हीरविजयसूरि को सिरोही का सुरक्षा कवच मानते थे । सिरोही के साथ हुए दत्ताणी के ऐतिहासिक युद्ध में मुगलों का पराभव हुआ था, तथापि हीरविजयसूरि के निर्देश पर अकबर ने अपने गुरु की इस विचरण - भूमि को शान्ति क्षेत्र मानकर युद्ध, उत्पीड़न और प्रतिशोध से मुक्त कर दिया था । स्वः पराजय की दाह की उपेक्षा आचार्य के प्रति अकबर के सम्मान की द्योतक है। युद्ध के बाद का शान्ति-काल सिरोही के लिए स्वर्णयुग सिद्ध हुआ ।
69 वर्ष की आयु में सन् 1596 में गुजरात के 'ऊना' ग्राम में हीरविजयसूरि ने अन्तिम सांस ली । अकबर ने उनके अग्निसंस्कार हेतु 100 बीघा भूमि प्रदान कर संत की मिली सौभाग्यशाली सन्निधि को याद किया । व्यवहार - कुशल व मधुरभाषी आचार्य को अपने जीवन में 'राजाओं के गुरु लोकसंत के रूप में अपार ख्याति मिली । उनका जीवन अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा । राजाओं और राजनीतिज्ञों के सन्निकट रहते हुए भी वे राजनीति से सदैव अलिप्त रहे ।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा के सबसे बड़े समुदाय 'तपागच्छ' के आप अकेले आचार्य थे । हजारों साधुसाध्वियों का आपने नेतृत्व किया । एक गच्छ में एक आचार्य की परंपरा आपके जाने के बाद 'तपागच्छ' में अटूट नहीं रह सकी । आचार्य हीरविजयसूरि पर विभिन्न रूपों में अनेक ग्रन्थों की रचना भी हुई ।
आत्मसुधारक सच्ची विद्वत्त या विद्या वही कही जाती है जिस में वि वप्रेम हो और विशय-पिपासा का अभाव हो तथा यथावत् धर्मका परिपालन और जीवनमात्र को आत्मवत् समझने की बुद्धि हो । स्वार्थिक प्रलोभन न हो और न ठगने की ठगबाजी। ऐसी ही विद्या या विद्वत्ता स्वपर का उपकार करनेवाली मानी जाती है, ऐसा नीतिकारों का मंतव्य है। जो विद्वत्ता, ईर्ष्या, कलह, उद्वेग पैदा करनेवाली है वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है। इसलिये जिस विद्वत्ता से आत्म कल्याण हो, वह विद्वत्ता प्राप्त करने में सदोद्यत रहना चाहिये।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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