________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
कामभोगाशंसा प्रयोग - इन पांच अतिचारों का उल्लेख किया गया है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र में कुछ भिन्न जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदानकरण - ये पांच अतिचार बतलाए गए हैं। इन। अतिचारों का विशेष स्वरूप निम्न प्रकार हैं:
1. इहलोकाशंसाप्रयोग
इस सल्लेखना / संथारे के फलस्वरूप मेरी कीर्ति, ख्याति, प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे बड़ा त्यागी, वैरागी समझें, धन्य धन्य कहें - इस प्रकार इस लोग सम्बन्धी आकांक्षा करने से अतिचार लगता है ।
उपासकदशाङगसूत्र टीका में बतलाया है कि इस मनुष्य लोक में सेठ, मन्त्री, राजा आदि ऋद्धि वाले मनुष्य होने की अभिलाषा इह लोकाशंसा प्रयोग अतिचार है।
2. परलोकाशंसा प्रयोग परलोक अर्थात् देव-देवेन्द्र होने की अभिलाषा करना ही परलोकाशंसा प्रयोग अतिचार है। 3. जीविताशंसा प्रयोग
संल्लेखना संथारा काल में अपनी महिमा पूजा होती देखकर बहुत समय तक जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसा प्रयोग अतिचार है । यही बौद्ध दर्शन में भवतृष्णा बतलायी गयी है ।
4. मरणाशंसा प्रयोग
अपनी पूजा प्रतिष्ठा न होती देख शीघ्र ही मरने की इच्छा रखना मरणाशंसा प्रयोग है । क्षुधा, तृषा आदि की पीड़ा से व्याकुल होकर जल्दी मर जाने की इच्छा करना मरणाशंसा प्रयोग है । यही बौद्धों की विभवतृष्णा है।
5. कामभोगाशंसा प्रयोग
अनशन के प्रभाव से आगामी भव में दिव्य मनुष्य सम्बन्धी कामभोग की अभिलाषा रखना कामभोगशंसा प्रयोग अतिचार है । बौद्धदर्शन में काम तृष्णा का भी ऐसा ही स्वरूप बतलाया गया है ।
आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि साधक जन्म व मरण दोनों विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त भाव से जीवन यापन करें क्योंकि अनासक्तयोग से ही सिद्धत्वयोग की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार श्रमण साधक हो अथवा अपरिग्रही श्रावक दोनों के लिए मरणान्त समय में संल्लेखना अथवा समाधिमरण विधि को ग्रहण करना चाहिए । कुशल भावपूर्वक मरण करने से भव का नाश होता है, और उत्तमगति का लाभ होता है जो मानव का अभीष्ट लक्ष्य है ।
उपासकदशाङ्गसूत्र में आनन्द श्रावक एवं अन्य सभी श्रावकों ने विचार किया कि जब तक उनमें उत्थानादि विद्यमान है, वे अन्तिम मारणान्तिक संलेखना अंगीकार करें। यह विचार कर उन्होंने संलेखना अंगीकृत की ।
संदर्भ 1. संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादि इति सल्लेखना । स्था. सू. टी. 2/2/76, पृ. 53
कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यक्लेखना सल्लेखना । सर्वार्थ, पृ. 273
अपच्छिममारणंतिय संलेहण । उपा. सू. 1/70, – मिलाइये उपा. टी. पू. 56 4. त. सू. 7/17 5. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रूजायां च निष्प्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। रत्न. श्रा. 6/1
हेमेन्द ज्योतिलेोज्न ज्योति 18 हेमेन्द ज्योति हेमेन्य ज्योति
H anusaili