Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 508
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था 2. जो श्रमण जीवन की साधना करने में वृद्धावस्था के कारण अशक्य हो, उसे सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 3. मानव, देव और तिर्यंच सम्बन्धी कठिन उपसर्ग होने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 4. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपिस्थत होने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 5. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया हो, तो साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए। 6. भयंकर अटवी में दिग् विमूढ़ होकर पथभ्रष्ट हो जाए तो साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । देखने की शक्ति और श्रवणशक्ति आदि की शक्ति क्षीण हो जाने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए। उपासकदशाङ्गसूत्र में आनन्द श्रावक के प्रसङ्ग में आता है कि आनन्द श्रावक को पूर्व रात्रि के अपरभाग में धर्म चिन्तन करते हुए यह विचार आया - यद्यपि मैं उग्र तपश्चरण के कारण कृश हो गया हूं, नसें दिखने लगी है, फिर भी अभी तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग विद्यमान है । अतः जब तक मुझमें उत्थानादि हैं और जब तक मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर गंध हस्ती के समान विचर रहे हैं । मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि अन्तिम मरणान्तिक संलेखना अंगीकार करुं। भोजन, पानी आदि का परित्याग कर दूं और मृत्यु की आंकाक्षा न करते हुए शान्त चित्त से अन्तिम काल व्यतीत करूं"। अतः स्पष्ट है कि आत्म-साधना हेतु सल्लेखना उस समय ग्रहण करनी चाहिए, जब शरीर तपश्चरण के योग्य न रहा हो । योगशास्त्र में भी कहा है कि श्रावक जब यह देखे कि आवश्यक संयम प्रवृतियों के करने में शरीर अब अशक्त और असमर्थ हो गया है या मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है तो सर्वप्रथम संयम को अंगीकार कर सल्लेखना करें: सोऽथावश्यकयोगानां भंगे मृत्योरथागमे । कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् || 4. सल्लेखना कहां करनी चाहिए: सल्लेखना अरिहन्त भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान अथवा निर्वाण कल्याणक के पवित्र तीर्थ स्थलों पर जाकर धारण करनी चाहिए । ऐसी भूमि नजदीक न हो तो, किसी एकान्तगृह, घर, वन या जीव जन्तु से रहित एकान्त, शान्त स्थान में सल्लेखना ग्रहण करनी चाहिए। 5. सल्लेखना की विधि: सल्लेखना ग्रहण करने वाला व्यक्ति इष्ट वस्तु से राग, अनिष्ट वस्तु से द्वेष, परिजनों से ममत्व और समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ कर शुद्ध मन से अपने परिजनों से अपने दोषों को क्षमा करावे और स्वयं भी उनके अपराधों को क्षमा करें" | पुनः जीवनभर के कृत, कारित और अनुमोदित निखिल पापों की निच्छल भाव से आलोचना करके मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले अहिंसादि महाव्रतों को धारण करें । सल्लेखनाधारी क्रम से अन्न के आहार को घटाकर दुग्धादि रूप स्निग्धपान को बढ़ावे । पुनः क्रम से स्निग्धपान को भी घटाकर छाछ अथवा उष्ण जल आदि खर-पान को बढ़ावे । पुनः धीरे-धीरे खर-पान को घटाकर और अपनी शक्ति के अनुसार उपवास करके पंच नमस्कार मंत्र का मन में जप करें और इस प्रकार चिन्त्वन करते हुए सम्पूर्ण प्रयत्न के साथ सावधानी पूर्वक शरीर का परित्याग करें"। उत्तराध्ययनसूत्र में भी सल्लेखना विधि का वर्णन मिलता है । यहां बतलाया गया है कि उत्कृष्ट सल्लेखना के धारक साधक को पहले चार वर्षों में घृत, दुग्ध आदि विगयों का त्याग करना चाहिए, फिर पांचवे से आठवें वर्ष हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति

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