________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
4 निस्पृह संत का राजनीतिक अवदान
मुनि विमलसागर धर्म और राजनीति संसार के दो ध्रुव हैं । जब भी ये मिलते हैं, एक-दूसरे पर हावी होने की चेष्टा करते हैं। मनुष्य के चित्त को राजनीति ही प्रभावित नहीं करती, धर्म भी गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। सामान्यतया यह देखा जाता है कि, या तो राजनीति को धर्म मार्गदर्शित करता है अथवा धर्म में राजनीति पड़ जाती है । इतिहास साक्षी है कि जब भी धर्म ने राजनीति का पथदर्शन किया तो कई क्रान्तिकारी व युगान्तकारी परिवर्तन जगत् ने देखे और मानवता को नई रोशनी मिली, किन्तु जब भी धर्म में राजनीति ने अपने वर्चस्व को दिखाने की कुचेष्टा की तब-तब न सिर्फ धर्म की अस्मिता खण्डित हुई, बल्कि मानवता को कलंकित होना पड़ा और इतिहास में काला अध्याय लिखा गया । यह ध्रुव सत्य है कि धर्म में राजनीति का पेठना कभी कल्याणकारी नहीं होता, परन्तु मानव समाज के हित में यह भी उतना ही आवश्यक है कि धर्म राजनीति का मार्गदर्शन करें ।
भारत के इतिहास का यह उज्ज्वल पहलू है कि यहां समय-समय पर विभिन्न साधु-संतों और ऋषि-मुनियों ने धर्म के आधार पर राजनीति को नियंत्रित कर समाज को उपकृत किया । संसार के भोग-सुखों से अलिप्त उन धर्म - अधिनायकों के साधना के समक्ष सत्ता व शासक नतमस्तक हुए और संसार में धर्म की सर्वोपरिता सिद्ध हुई।
अखण्ड भारत के इतिहास में मुगलकाल धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप का ही नहीं, बल्कि अतिक्रमण का अध्याय है। इस दौरान् भारतीय धर्म और संस्कृति पर कई ज्यादतियां हुई । राजवाड़ों में बिखरी यहां की शासन व्यवस्था मुगलों की सत्ता को सफल होने से रोक नहीं सकी । इस दौर में आज से 471 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1583 को भाद्रपद शुकल एकादशी को गुजरात के पालनपुर नगर की धन्य धर्मधरा पर हीरजी के नाम से एक युगपुरुष ने जन्म लिया, जो आगे चलकर महान जैनाचार्य हीरविजयसूरि के नाम से जगद्-विख्यात हुए ।
पिता 'कुरा' और माता 'नाथाबाई' के इस स्वनामधन्य सपूत के बहुमुखी व्यक्तित्व की निर्मल आभा ने तत्कालीन समाज व राजनीति को नई दिशा दी । कभी-कभी एक व्यक्ति की प्रतिभा और साधना समग्र परिवेश को अलंकृ त कर देती है । आचार्य हीरविजयसूरि के जीवन-काल से ऐसा ही फलित हुआ । अपनी तप-साधना, सांस्कृतिक निष्ठा, गहरे आत्मबल अनेकान्तवादी उदार दृष्टिकोण और स्वभाविक सज्जनता के आधार पर वे अपने युग में पर्याय के रूप में उभरे । उनका समय जैनधर्म व गुर्जर इतिहास में 'हीरयुग' के नाम से स्थापित हुआ । ऐसे अनेक अवसर आये जब तत्कालीन राजनीति हीरविजयसूरि के विराट् व्यक्तित्व के समक्ष नगण्य बन गई।
हीरविजयसूरि का उद्भवकाल हिन्दू संस्कृति का संक्रमण काल था । इस कालखण्ड में अखण्ड भारतवर्ष और उसकी प्रजा ने कई उतार-चढ़ाव देखे । एक ओर दिल्ली की राजगद्दी पर मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का शासन था तो शौर्यभूमि मेवाड़ में हिंदूसूर्य महाराणा प्रताप अपने हक और धर्म की रक्षा के लिए सब-कुछ न्यौछावर कर रहे थे । उधर महाराव सुरताण सिरोही स्टेट के अधिपति थे । संयोग से हीरविजयसूरि इस त्रिकोणीय राजनीति के केन्द्र बिन्दु हो गये थे।
अपने दरबार के रत्न सेठ थानमल की माता चंपाबाई के निरंतर 180 दिन के उपवास की तपसाधना से प्रभावित होकर अकबर ने सन् 1582 के लगभग काबुल से लौटने के बाद गुजरात के शासक शिहाबुद्दीन अहमदखान के पास फरमान भेजकर आचार्य हीरविजयसूरि को आगरा दरबार में पधारने का निमंत्रण दिया । आचार्य गुजरात के गंधार नगर से पैदल चलकर आगरा आये | शहर से 19 कि.मी. दूर फतेहपुर - सीकरी में 6 लाख लोगों के साथ स्वयं मुगल बादशाह अकबर ने नंगे पांव चलकर जब आचार्य का शाही स्वागत किया तो राज्यशासन के समक्ष धर्मशासन की महत्ता सिद्ध हुई। बस, यहीं से एक ओर मुगल शासन की व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव की शुरूआत हुई तो दूसरी ओर हिंदू-संस्कृति की गरिमा और हीरविजयसूरि की यश-कीर्ति ने ऊंची छलांग भरी ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 12 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति