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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
श्रद्धेय गुरुदेव के आदेशानुसार श्री लुणाजी पोरवाल दूसरे दिन प्रातःकाल खेड़ा गये । वहां उन्हें एक स्थान पर कुमकुम का स्वस्तिक दिखाई दिया । श्री लुणाजी पोरवाल ने श्री नवकार महामंत्र का स्मरण कर श्रद्धेय गुरुदेव के आदेशानुसार उसी समय खात मुहूर्त कर दिया ।
वि. सं. 1940 मृगशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभ दिन भगवान श्री ऋषभदेव आदि अनेक जिनबिम्बों की भव्य अंजनशलाका कर प्रतिष्ठा की गई । श्रद्धेय गुरुदेव ने प्रतिष्ठोपरांत श्रीसंघ के सम्मुख घोषणा करते हुए फरमाया कि यह मन्दिर आज से एक महान तीर्थ के नाम से पुकारा जाय । जिस प्रकार सिद्धाचल तीर्थ की महिमा है, उसी प्रकार भविष्य में इस तीर्थ की महिमा होगी । अतः इस तीर्थ को आज से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के नाम से पुकारा जाय । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि सिद्धाचल तीर्थ के 108 नाम हैं, उनमें एक नाम मोहनगिरि है । ऐसा कहा जाता है कि इस भूमि पर श्वेत मणिधर सर्पराज का निवास था । आज भी जिनालय के पीछे रायण वृक्ष के नीचे स्थित युगादिदेव के पगलिया जी की छत्री के पास उनकी छोटी-सी बांबी पर घुमट शिखरी है ।
प्रतिष्ठोत्सव के पश्चात् जैन श्रावकगण सिद्धाचल रूप इस तीर्थ की यात्रार्थ आने लगे ।
श्रद्धेय गुरुदेव का स्वर्गगमन :- परम श्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सं. 1963 पौष शुक्ला षष्ठी की मध्यरात्रि में राजगढ़ में समाधिपूर्वक महाप्रयाण कर गये । चारों ओर शोक की लहर व्याप्त हो गई। पौष शुक्ला सप्तमी को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ जिनालय के प्रांगण में हजारों गुरुभक्तों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से श्रद्धा सहित पूज्य गुरुदेव को अंतिम बिदाई दी । पू. गुरुदेव का अंतिम संस्कार किया गया । यहां गुरुभक्तों द्वारा समाधि मंदिर का निर्माण करवाया। आजकल प्रतिवर्ष पौष शुक्ला सप्तमी को मेला लगता है और पौष शुक्ला सप्तमी गुरु सप्तमी पर्व में समारोह पूर्वक मनाया जाता है । इस दिन देश के कोने कोने से हजारों की संख्या में गुरूभक्तों का आगमन होते हैं ।
तीर्थ विकास :- 108 वर्ष प्राचीन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का वातावरण शान्त और निरोग है । प्रथम तीर्थंकर एवं तीर्थपति भगवान् श्री आदिनाथजी की प्रतिमा अलौकिक एवं दिव्य रूपधारी है । भगवान् आदीश्वर दादा प्रकट, प्रभावी एवं दर्शनार्थी को पूर्ण आनंद प्रदान करने वाले हैं । इस प्रतिमा के दिन भर में तीन रूप होते हैं । यथा :- प्रातःकाल रूप, मध्यान्ह युवा एवं सांध्यकाल में प्रौढ़ एवं गम्भीर रूप होता है ।
यहां के प्राचीन मन्दिर का द्वितीय जीर्णोद्धार कार्य सं. 2034 में पूर्ण हुआ और व्याख्यान वाचस्पति प. पू. आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पट्टप्रभावक सुशिष्य कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों से पुनः प्रतिष्ठा हुई । संगमरमर पाषाण से नवनिर्मित त्रिशिखरी भव्य जिनालय में परिकर सहित मुख्य आदिनाथ एवं शंखेश्वर पार्श्वनाथजी और चिंतामणि पार्श्वनाथजी आदि भगवान् की प्रतिमाएं मुख्य रूप से बिराजमान है । सम्पूर्ण भारत में प्रथम श्वेताम्बरीय भगवान् आदिनाथ की 16 फीट | इंच की विशाल श्यामवर्णी कायोत्सर्ग मुद्रावाली प्रतिमा मुख्य जिनालय के दायी ओर विराजमान है । मन्दिर के पृष्ठ भाग में रायण पगलियाजी विराजमान है । जहां नागदेवता यदा-कदा भाग्यशाली यात्रियों को दर्शन देते हैं । जिनालय के बांयी ओर भगवान पार्श्वनाथ की 51 इंची सुन्दर प्रतिमा तथा शाश्वता चौमुखीजी विराजमान हैं।
जिनालय के आगेवाले भाग में परमश्रद्धेय शासन सम्राट श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के निर्माता गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का भव्य समाधि मन्दिर हैं । श्रद्धेय गुरुदेव की नयनाभिराम प्रगट प्रभावी प्रतिमा विराजमान है । पौष शुक्ला सप्तमी को लगने वाले मेले के दिन अज्ञात शक्ति से प्रेरित इस गुरु समाधि मन्दिर में हजारों गुरुभक्त यात्रियों की उपस्थिति में अमीय वृष्टि होती है । श्रद्धेय गुरुदेव की कृपा से हजारों गुरुभक्तों की मनोकामनाएं भी पूर्ण होती है । यहां गुरुदेव के मन्दिर में गुरुभक्तों द्वारा सोलह अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रखी हुई है । गुरुदेव के प्रभाव से रोग मुक्ति, ऋण मुक्ति आदि कार्य भी सिद्ध होकर सुख-शान्ति स्थापित होती है । पूज्य गुरुदेव के ध्यान से आध्यात्मिक आत्मशान्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है ।
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