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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
श्री मोहनखेड़ा जैन तीर्थ ! संक्षिप्त इतिहास :
मुनि पीयूषचन्द्रविजय तीर्थ स्थानों की महिमा अपरम्पार है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए किसी कवि ने तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है :
श्री तीर्थपांथ रजसा विरजी भवन्ति, तीर्थसु बंधमणतो न भवे भमन्ति | द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिर संपदः स्युः,
पूज्या भवन्ति जगदीश मथार्चयन्ति || इसका तात्पर्य यह है कि, तीर्थ के मार्ग की रज से पापों का नाश होता है । जो तीर्थ भ्रमण करता है, वह संसार भ्रमण नहीं करता । तीर्थ में धन-लक्ष्मी खर्च करने से सम्पत्ति स्थिर रहती है । कभी नहीं घटती । तीर्थ यात्रा में तीर्थंकर भगवंतों की पूजा, अर्चना, ध्यान और सेवना करने से पूजक पूज्य बनता है । तीर्थ के भेद :- जैसा कि ऊपर बताया गया है, उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि संसार सागर से भवपार होने के लिये तीर्थ ही एक मात्र आधार है । जब हमारे मानस पटल पर तीर्थ और उसके भेद या प्रकार की बात उभरती है तो हम पाते हैं कि तीर्थ के दो भेद हैं । एक जंगम तीर्थ और दूसरा स्थावर तीर्थ । जिन आगम, जिनमूर्ति, जिनमंदिर ये तो हैं स्थावर तीर्थ और साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को जंगम तीर्थ कहा गया है। तीर्थ यात्रा का फल :- तीर्थ के विषय में एक अन्य बात यह भी कही गई है कि व्यक्ति द्वारा अन्य स्थान पर किये गये किसी भी प्रकार के पाप की मुक्ति तीर्थ यात्रा करने से हो जाती है । यथा :
अन्य स्थाने कृतं पापम, तीर्थ स्थाने विमुच्यते । मनुष्य यह तो नहीं जानता कि उसने कौनसा पाप कहाँ किया है । कदाचित, जानता भी है तो वह उस पर ध्यान नहीं देता । जाने अनजाने में किये गये पापों से मुक्त होने के लिये तीर्थ यात्रा अवश्य करनी चाहिये । इस कलियुग में मुक्ति प्राप्त करने वाले इच्छुक भव्य प्राणियों के लिये तीर्थ यात्रा सर्वश्रेष्ठ साधन है । जिनेश्वर परमात्मा की कल्याणक भूमि एवं महान तपस्वी पूज्य मुनि भगवंतों एवं गुरु भगवंतों की तपोभूमि के प्रभाव से तीर्थ स्थल सुख एवं शांतिप्रदान करने वाले बन जाते हैं । शाश्वत तीर्थ श्री सिद्धाचल की महिमा अपरम्पार है । तीर्थ स्थापना :- प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने मालव भूमि पर विचरण करते हुए जैन शासन की ध्वजा फहराई और तपश्चरण तथा धर्मोपदेश द्वारा उस धरा को पावन किया। वि. सं. 1940 में आपश्री ने राजगढ़ जिला धार (म.प्र.) से पश्चिम दिशा की ओर सिद्धाचल स्वरूप शत्रुजयावतार भगवान् श्री ऋषभदेव के जिनालय की स्थापना करवाई ।
किसी समय राजगढ़ के समीपवर्ती मनोहारी घाटियों वाले स्थान पर बंजारों की एक छोटी सी बस्ती थी, जो खेड़ा के नाम से जानी जाती थी । अपने विहारक्रम में परमश्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. इस क्षेत्र में पधारे । खेड़ा गांव के समीपवाली घाटी पर चलते समय एकाएक आपश्री के पांव रुक गये । यह अप्रत्याशित था । श्रद्धेय गुरुदेव महायोगी थे । उन्होंने अपने ध्यान बल से देखा कि इस भूमि पर एक महान तीर्थ की संरचना होने वाली है । उन्होंने वहां एक ऐसा दिव्य प्रकाश पुंज भी देखा, जो परम सुखशांति देने वाला था। श्रद्धेय गुरुदेव वहां से राजगढ़ पधारे और वहां के तत्कालीन जमींदार श्रीमंत लुणाजी पोरवाल से कहा -- "श्रावकवर्य'! प्रातःकाल उठकर खेड़ा जाना । वहां घाटी पर जहाँ भी कुमकुम का स्वस्तिक दिखाई दे, उस स्थान को चिन्हित कर आना । उस स्थान पर आपको एक मन्दिर का निर्माण करवाना है ।"
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