________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
भारतीय ज्योतिष में जैन मुनियों का योगदान ....
ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण मानव स्वभाव जिज्ञासु है । उसकी इस जिज्ञासु स्वभाव के कारण ही ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ । ज्ञान की एक शाखा का नाम 'ज्योतिष विद्या है | ज्योतिष विद्या के माध्यम से मानव भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल की बातें जानना चाहता है । ज्योतिष शास्त्र या ज्योतिष विद्या की जब उत्पत्ति की बात आती है, तो हम पाते हैं – “ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधक शास्त्रम्" । अर्थात् जो शास्त्र सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाला है । उसे ज्योतिष शास्त्र कहा गया है । इस शास्त्र के दो रूप माने गये हैं - 1. बाह्य रूप 2. आम्यंतरिक रूप।
बाह्य रूप के अंतर्गत ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतू आदि ज्योतिः पदार्थों का निरूपण एवं गृह नक्षत्रों की गति, स्थिति एवं उनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है | आभ्यंतरिक रूप में समस्त भारतीय दर्शन आ जाता है । कुछ मनीषियों के मतानुसार नभोमंडल में स्थित ज्योतिः संबंधी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं अर्थात जिस शास्त्र में इस विद्या का संपूर्ण वर्णन रहता है, उसे ज्योतिष शास्त्र कहते हैं । इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति के दो लक्षण हो जाते हैं । इनमें मात्र इतना ही अंतर है कि, पहिले में गणित और फलित दोनों प्रकार के विज्ञानों का समन्वय किया गया है और दूसरे में खगोल ज्ञान पर ही दृष्टिकोण रखा गया है । भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कन्ध पंच सिद्धांत, होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन ये अंग माने गये हैं । यदि विराट पंच स्कन्धात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाय तो आज का मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र आदि भी इसी के अंतर्भूत हो जाते हैं । वैसे एक बात स्पष्ट है कि, ज्योतिष शास्त्र की परिभाषा समय-समय पर विभिन्न रूपों में मानी जाती रही हैं। उस पर यहाँ विचार करना प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता । प्रारंभिक काल की दृष्टि से देखें तो जैन मान्यता की दृष्टि से ज्योतिष तत्त्व पर सुंदर प्रकाश पड़ता है । जैन मान्यता के अनुसार यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा है। इसमें न कोई नवीन वस्तु उत्पन्न होती है और न किसी का विनाश ही होता है, केवल वस्तुओं की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । इस संसार का कोई सृष्टा नहीं है, वह स्वयं सिद्ध है । जैन साहित्य में कुलकरों के युग में ज्योतिष विषयक ज्ञान की शिक्षा देने के उल्लेख है ।
यदि जैन अंग साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो, हम पाते हैं कि उसमें नवग्रहों का ईस्वी सन् से हजारों वर्ष पूर्व स्पष्ट उल्लेख होने लगा था । जैन आगम में 'जोईसंग विउ' शब्द आया है । भाष्यकारों ने इस शब्द का अर्थ ग्रह, नक्षत्र, प्राकीर्णक और ताराओं विभिन्न विषयक ज्ञान के साथ राशि और ग्रहों की सम्यक स्थिति के ज्ञान को प्राप्त करना किया है। जैन ग्रंथों में उत्तरायण और दक्षिणायन को स्थिति विस्तार से बताई है । सूर्य-चंद्रमा आदि समस्त ज्योतिमंडल जम्बूद्वीप के मध्य स्थित सुमेरू पर्वत की परिक्रमा किया करता है । यहां गमन मार्ग की भी चर्चा की गई हैं।
स्थानांग सूत्र में पांच वर्ष का एक युग बताया गया है । ज्योतिष की दृष्टि से युग की अच्छी मीमांसा की गई है । वहां पंच संवत्सरात्मक युग के पांच भेद हैं - नक्षत्र युग प्रमाण, लक्षण और शनि । युग के भी पांच भेद बताये गये हैं । चंद्र, चंद्र, अभिवर्द्धित चंद्र और अभिवर्द्धित । इसी प्रकार समवायांग में बताया गया है :
पंच संवच्छरियस्सणं जुगस्स रिउमासेणं मिचच माणस्स एगसट्ठि उ ऊमासा | तात्पर्य यह है कि, पंच वर्षात्मक एक युग होता है । इस युग के पांच वर्षों के नाम चंद्र, चंद्र, अभिवर्द्धित चंद्र और अभिवर्द्धित बताये गये हैं । पंच वर्षात्मक युग में इकसठ ऋतु मास होते हैं ।
समवायांग और सूयगडांग में दिनरात की व्यवस्था का विवरण भी मिलता है । इसके पश्चात् की स्थिति का
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
4
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
Pww.limelibrate