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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
अवलोकन करते हैं तो, पाते हैं कि, ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और कालकाचार्य ने ज्योतिष के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की । कालकाचार्य ने तो विदेशों में भ्रमण कर अन्य देशों के ज्योतिषवेत्ताओं के साथ रहकर प्रश्नशास्त्र और रमलशास्त्र का परिष्कार कर भारत में इनका प्रचार किया । इस अवधि में ज्योतिषशास्त्र विषयक ग्रंथों का प्रणयन भी हुआ ।
अब हम प्रारंभिक जैन ज्योतिष साहित्य का विवरण देकर कुछ उन जैन मुनियों का उल्लेख करेंगे, जिन्होंने ज्योतिष विद्या के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है ।
वेदांग ज्योतिष पर अन्य ग्रंथों के प्रभाव की चर्चा करते हुए पं. नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि, वेदांग ज्योतिष पर उसके समकालीन षटखण्डागम में उपलब्ध ज्योतिष चर्चा सूर्य प्रज्ञप्ति एवं ज्योतिष करण्डक आदि जैन ज्योतिष ग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । जैन ग्रंथ यतिवृषभ का तिलोयपण्णति, सूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति में सामान्य जगत स्वरूप, नारक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्य लोक, व्यन्तर लोक, ज्योतिर्लोक, सुरलोक, सिद्धलोक आदि का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । जैन करणानुयोग या प्राकृत लोकविभाग ग्रंथ उपलब्ध हो जाते तो, यतिवृषभ के समय नक्षत्रों, राशियों और ग्रहों के पूर्ण विकास की स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । सूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति में भी ज्येतिष विषयक अच्छी जानकारी उपलब्ध होती है । इसी प्रकार ज्योतिषकरण्डक नामक ग्रंथ जिस पर पादलिप्तसूरि की टीका का उल्लेख है, भी ज्योतिष विद्या की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसे ज्योतिष विद्या का मौलिकग्रंथ माना गया है । ऋषिपुत्र :- ऋषिपुत्र जैन धर्मावलंबी थे और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे । केटालोगस, केटालोगोरम में इन्हें आचार्य गर्ग का पुत्र बताया गया है । आर्यभट्ट के पूर्व हुए ज्योतिषयों में गर्ग की चर्चा आती है । कुछ विद्वान इन्हें गर्ग के पुत्र के स्थान पर शिष्य मानते हैं । अभी ऋषिपुत्र का निमित्त शास्त्र उपलब्ध है । मदनरत्न नामक ग्रंथ में इनके द्वारा रचित् एक संहिता का उल्लेख है । ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर की रचनाओं पर स्पष्ट दिखाई देता है । इनका समय ई. पूर्व 180 या 100 बताया गया है । कालकाचार्य :- ये निमित्त और ज्योतिष के विद्वान थे । जैन परंपरा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है । यदि ये निमित्त और संहिता का निर्माण नहीं करते तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पापश्रुत समझकर छोड़ देते। ये धारावास के राजा वयरसिंह के पुत्र थे । इनकी माता का नाम सुरसुंदरी और बहिन का नाम सरस्वती था । वराहमिहिराचार्य ने वृद्धजातक में कालक संहिता का उल्लेख किया है । यह संहिता उपलब्ध नहीं है । वीरसेन :- वीरसेन चंद्रसेन के प्रशिष्य और वसुनंदी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रों में निपुण और सिद्धांत एवं छंद शास्त्र का ज्ञाता बताया है । इन्होंने ज्योतिष और निमित्त संबंधी प्राचीन मान्यताओं का स्पष्ट विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त नक्षत्रों के नाम, गुण, स्वभाव, ऋतु, अयन और पक्ष का विवेचन भी किया है । इन्होंने धवलाटीका की रचना की । इनका समय ईसा की नवमीं सदी हैं । महावीराचार्य :- ये राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष राजा के समय हुए । इनका समय ईसा की नवमीं सदी माना जाता है । इनके द्वारा रचित् गणितसार एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । अधिक जानकारी के लिये देखें :- गणित सार-संग्रह - सं डॉ0 ए0 एन0 उपध्ये । इनकी ज्योतिर्ज्ञान निधि और जातक तिलक नामक दो और रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। चद्रेसन :- केवलज्ञान होरा नामक एक विशालकाय ग्रंथ के ये रचनाकार हैं । यह एक संहिता ग्रंथ है । इसमें होरा संबंधी कुछ भी नहीं है । दक्षिण में रचना होने के कारण कर्नाटक प्रदेश के ज्योतिष पर इसका पूर्ण प्रभाव है । इस ग्रंथ में अनुमानित तीन हजार श्लोक हैं । इस ग्रंथ में हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिका प्रकरण, वृक्ष प्रकारण, कापसि गुल्मवल्कल, रोम चर्म पर प्रकरण, संख्यांक प्रकरण, नष्ट द्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपव्य
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