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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
I
5. अपरिवाह (अकिंचनता) सुच परिवग्रहः । संसार के समस्त लौकिक पदार्थों में मूर्च्छा आसक्ति भाव रखना परिग्रह है । फिर वह भले अल्प हो या बहुत, सचित हो गया अचित्त, अल्पमूल्य हो या बहुमूल्य । इन का संग्रह परिग्रह है । परिग्रह का त्याग अनासक्ति भाव से करना और उसकी फिर कभी त्रिकरण- त्रियोग से चाहना नहीं करना अपरिग्रह व्रत है । श्रीवीतराग प्रवचन में परिग्रहवृत्ति (संग्रहवृत्ति) को आत्मा के लिये अत्यन्त घातक कहा गया है ।
जब से परिग्रहवृत्ति पोषित होती है, तभी से आत्मा का अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है और अपरिग्रहवृत्ति आत्मा को तृष्णा पर विजयी बना कर उन्नत बनाती है ।
जैनागमों में उक्त पांचों महाव्रतों की पांच-पांच भावना कही गई हैं। जो महाव्रत पालक को अवश्य आदरणीय
1.
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इर्यासमिति, मनोगुप्ती, वचनगुप्ती, आलोकित भोजन पान और आदानमण्ड - मात्रनिक्षेपन समिति, ये पांच भावनाएं प्रथम (अहिंसा) महाव्रत की हैं ।
2. अनुविधिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान ये पांच भावनाएं द्वितीय महाव्रत की हैं।
3. अनुवीचि अवग्रह याचना अभीक्ष्णावग्रहयाचना, अवग्रहावधारणा, साधर्मिकावग्रह याचना और अनुज्ञापित पानभोजन, ये पांच भावना तृतीय महाव्रत की हैं ।
4. स्त्री- पशु नपुंसकसेवित शय्या-आसन त्याग, स्त्रीकथावर्जन, स्त्रीअंगप्रत्यंगदर्शन त्याग, मुक्त-रति-विलासस्मरणत्याग और प्रणीतरस पौष्टिक आहार त्याग, ये पांच भावनाएं चतुर्थ महाव्रत की है ।
5. श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसना और स्पर्शेन्द्रिय जन्य शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के विषय में अनासक्ति राग का त्याग, ये पांच भावनाएं पांचवें महाव्रत - अपरिग्रह व्रत की है ।
इस तरह उक्त पांच यमों (सार्वभौम महाव्रतों) की पांच-पांच भावनाएं हैं। वस्तुत्व के पुनः पुनः अधिचिन्तन करने को भावना कहते हैं ।
जिस प्रकार खड़ा किया हुआ तम्बू बिना आधार (तनें) लगे नहीं ठहर कर गिर जाता है, वैसे ही महाव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् उसे भावनारूप तने नहीं लगेंगे तो सम्भव है साधक साधना से च्युत हो जाय अतः उक्त भावनाओं का अभ्यास साधक को करना अत्यावश्यक माना गया है ।
in Education
उक्त पांचों महाव्रतों के विषय में जैनागम और पातंजलयोगदर्शन में प्रायः वर्णन साम्यता है । योग में अधिकार प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों का उक्त अहिंसादि पांच यमों का यथावत् पालन करना प्रथम कर्तव्य है । जब साधक व्यक्ति अहिंसादि के सुगमानुष्ठानार्थ एतद्विरोधि हिंसा, असत्य, स्तेय मैथुन और परिग्रहवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देता है, तब उसे एक अनुपम आनन्द प्राप्त होता है जिसका वर्णन अवर्णनीय है ।
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