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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन
ग्रंथ
1. अस्ति, 2. नास्ति, 3. अस्ति नास्ति, 4. अवक्तव्य, 5. अस्ति अवक्तव्य, 6. नास्ति अवक्तव्य, 7. अस्ति नास्ति
अवक्तव्य ।
ये सातों भंगों, तत्व जिज्ञासु के सात प्रश्नों के उत्तर रूप में माने जाते हैं अर्थात तत्व स्वरूप जानने की अभिलाषा रखने वाला व्यक्ति तत्वज्ञ पुरुष के समक्ष अपनी तत्व जिज्ञासा को केवल सात ही प्रश्नों के द्वारा प्रकट कर सकता है। अतएव, जिज्ञासा को समाधान देने के लिए, इन्हीं सात भंगों के माध्यम से सात प्रकार के उत्तर निर्धारित किये हैं। ये उत्तर, वस्तु स्वरूप के विभिन्न धर्म, गुण, और पर्यायों की मुख्य और गौण स्थिति को लक्ष्य कर निर्धारित किये गये हैं।
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पदार्थ के अनेकांतात्मक-स्वरूपों में से जिस स्वरूप की विवक्षा करनी होती है, वह स्वरूप उस विवक्षा की दृष्टि से 'मुख्य' कहलाता है, शेष स्वरूप 'गौण' कहे जाते हैं। इसी को दार्शनिक भाषा में यों कहा जाता है - :- जो विवक्षित होता है, वह मुख्य है और जो अविवक्षित होता है, उसे गौण कहते हैं। इस संदर्भ में स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अंतरंग अर्थ को मुख्य' कहते हैं। इसके विपरीत अर्थ गौण' है"। मुख्य अर्थ के रहते गौण अर्थ बुद्धिगम्य नहीं बनता है। जिस तरह कर्ता, कर्म आदि कारक, अर्थ की सिद्धि के लिये एक-दूसरे को अपना सहयोगी बना लेते हैं, उसी प्रकार मुख्य गौण की विवक्षा माननी चाहिये” । देवदत्त, अपने बेटे सोमदत्त के पुत्र जिनदत्त का पितामह है। यहां सोमदत्त अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है। किंतु अपने पुत्र जिनदत्त की अपेक्षा से पिता है। अतएव, जब उसे देवदत्त की अपेक्षा से परिचित कराया जायेगा तब उसमें पुत्रत्व 'मुख्य' होगा और पितृत्व गौण होगा। किंतु जिनदत्त की अपेक्षा से दिये जा रहे उस के परिचय में 'पितृत्व' मुख्य हो जायेगा और पुत्रत्व गौण रहेगा। इसी तरह जब अन्य वस्तु स्वरूपों की विवेचना में हम मुख्य-गौण-विवक्षा अपनाते हैं, जब इन विवक्षाओं में 'गौण' का अर्थ निषेध करना नहीं होता है। अपितु अप्रधानता माननी चाहिए। निषेध का अर्थ होता है - :- उस धर्म गुण, पर्याय आदि का अभाव या असत्व। जब कि गौणत्व का तात्पर्य होता है- अमुख्यता । वस्तुतः गौण, धर्म, गुण आदि उस वस्तु अर्थात पदार्थ में होता तो है, किंतु अपेक्षावश अप्रधान बन जाता है और जब उस अप्रधान की विवक्षा प्रधान होती है, तब वही गौण अर्थ 'मुख्य' बन जाता है और मुख्य बने अर्थ को अपना गौण अर्थ बना लेता है। जैसा कि कारक - समूह में होता है। इसीलिये सप्तभंगी की पद्धति में मुख्यार्थ बतलाने वाले प्रत्येक शब्द - विशेष के साथ 'स्यात' शब्द का प्रयोग पहिले और 'एवं' शब्द का प्रयोग बाद में किया जाना अनिवार्य माना गया है।
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सप्तभंगी में अर्थात सप्तभंगीय वाक्यों में 'एव' शब्द का प्रयोग करने का उद्देश्य यही है कि अनिष्ट अर्थ का निवारण हो जाये । अन्यथा कोई स्थिति ऐसी भी हो सकती है, बन सकती है जिसमें कहा गया वाक्य अनकहे जैसा भी बन सकता है। इसलिए 'एव' कार का प्रयोग करने के साथ-साथ 'स्यात्' शब्द का भी प्रयोग करने का आशय, उस पदार्थ विशेष में अनेक धर्मत्व का प्रतिपादन करना अनिवार्य होता है।
इस तरह पूर्व में बतलाये गये सातों भंगों का स्वरूप और उनका अभिप्राय निम्न लिखित प्रकार निर्धारित हुआ मानना चाहिए।
1. स्यादस्त्येव - स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व की स्वीकृति है। 2. स्यान्नास्त्येव परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव की अपेक्षा से वस्तु विशेष में नास्तित्व की स्वीकृति है । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव इन दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व की स्वीकृति है। । स्यादवक्तव्य एव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व की स्वीकृति की अभिव्यक्ति में असमर्थता ।
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5. स्यादस्त्येव अवक्तव्य प्रथम और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य । स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव - द्वितीय और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य । 7. स्यादस्ति स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव तृतीय और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य |
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हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
43 Private & P
हेमेनर ज्योति ज्योति