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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा
इन सब के पीछे परस्परता का चिन्तन छिपा है जो सह अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। सह अस्तित्व का सामान्य अर्थ है दूसरों का भी अस्तित्व अथवा उपस्थिति। जब हम अपने अस्तित्व की बात करते हैं तो दूसरों के अस्तित्व को कैसे भूल सकते हैं। हमारा जीवन वनस्पतियों पर आश्रित है और अगर हम उनके अस्तित्व को समाप्त कर यह सोच लें कि हम स्वयं को बचा लेंगे तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हमें वनस्पति के अस्तित्व को मानना ही पड़ेगा। महावीर ने अपनी धर्मदेशना में इस बात का बार बार उद्घोष किया है। परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है। यही अस्तित्व रक्षा है जो कुछ और नहीं, सह अस्तित्व की स्वीकृति मात्र है।
सह अस्तित्व की अवधारणा में अनाग्रह के बीज छिपे हैं। यह वैश्विक संघर्ष को समाप्त कर सकती है क्योंकि संघर्ष का मूल जनक आग्रहवृत्ति है। आग्रहवृत्ति अनेक प्रकार के मिथ्यात्व को जन्म देती है। व्यक्ति सत्-असत्, एक-अनेक, परमार्थ-स्वार्थ आदि विविध प्रकार के द्वंदों में उलझने लगता है। जबकि अनाग्रह की वृति मनुष्य के मन में सापेक्ष दृष्टि उत्पन्न करती है। वह एक-अनेक, सत्-असत् के द्वंद्वों से मुक्त होकर किसी भी तथ्य को सापेक्ष दृष्टि से परखता है और संघर्ष के मूल कारणों का निराकरण करता है। वह अस्तित्व और नास्तित्व दोनों को विरोध न मानकर सहभावी मानता है। किसी भी तथ्य को वास्तविकता प्रदान करने के लिए दोनों आवश्यक है। इसी प्रकार एक और अनेक की समस्या को भी सह-अस्तित्व को स्वीकार करके भगवान महावीर ने अपनी देशना में स्पष्ट किया है। वे कहते हैं जो एक है, वह अनेक भी है और जो अनेक है वह एक भी है। इसी तथ्य को वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं जो एक को जान लेता है, वह सब को जान लेता है, और सबको जानने वाला एक को जान सकता है | महावीर ने यहां यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि एक का भी अस्तित्व सत्य है और अनेक का भी अस्तित्व सत्य है। दोनों का ही सह-अस्तित्व है। सचमुच पारस्परिक विरोधी बातों की सहायता से समाधान का सूत्र प्रस्तुत करना एक विलक्षण कार्य है, जिसे महावीर ने सह-अस्तित्व की अवधारणा द्वारा सहज बनाया। सह-अस्तित्व महावीर की देशना का एक अद्भूत सिद्धांत है जिसके निहितार्थ हैं सभी के अस्तित्व को स्वीकार कर वैश्विक शांति की स्थापना।
सहयात्रा :
भाव भ्रमण संसारस्थ प्राणियों की नियति है। यहां प्राणी विविध योनियों में जन्म लेते हैं और मरते रहते हैं। वे अपने कर्मों के वश में रहकर संसार रूपी महासागर की महायात्रा करते रहते है। यहाँ प्रत्येक प्राणी एक यात्री भी है और सहयात्री भी। यहां कभी कोई अकेले नहीं चलता है। जब भी वह अपनी यात्रा का प्रारम्भ करता है कोई न कोई अवश्य उसका सहयात्री बन जाता है। यदि किसी कारणवश कोई अन्य प्राणी उसकी यात्रा-पथ का साथी नहीं बनता है तो स्वयं उसके अपने कर्म ही इस भूमिका का निर्वाह करने लगता है। ब्रह्मांड रूपी महापंथागार में प्राणी का यही सच्चा सहयात्री है जो कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ता। यही उसके सुख दुख, जन्म-मरण का जनक भी है और इससे त्राण दिलाने वाला भी। इसी रूप में इसकी प्रकृति का निर्धारण भी होता है। सह यात्री अगर अच्छा और अनुकूल हो तो कठिन यात्रा भी सुगम लगने लगती है जबकि प्रतिकूल सह यात्री सामान्य और आसान यात्रा को भी महा कष्टकारी बना देता है। यही कारण है कि महावीर ने अपनी देशना में मनुष्यों को ऐसे सहयात्री का चयन करने का परामर्श दिया है जो यात्रा पथ में आने वाली समस्याओं के निराकरण में उसका सम्यक् सहयोग करे।
आंतरिक और बाह्य जगत के रूप में प्रत्येक प्राणी को दो भिन्न प्रकृति के पथ की यात्रा अपने जीवन काल में करनी पड़ती है। बाह्य जगत की यात्रा जहां भव उत्पादक है वहीं अंतर जगत की यात्रा भव विनाशक। यात्रा के इस पथ में व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के सह यात्री मिलते हैं। बाह्य जगत में अन्य प्राणियों का निवास रहता है और यही सह यात्री बनते हैं। जबकि आंतरिक जगत की यात्रा में व्यक्ति की चेतना ही सहयात्री बनती है, क्योंकि यही इस पथ का पथिक है। यही व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली विषय वासनाओं का नाश करती है और व्यक्ति अपने कर्मावरण को अल्प करते हुए मुक्ति पथ की ओर अग्रसर हो जाता है। भ. महावीर के कहने पर किरात ने अंतर्यात्रा के पथ पर चलना प्रारम्भ किया। उसने अपने भीतर प्रवेश किया। उसे सहयात्री के रूपमें ऐसे दिव्य ज्योति
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेठच ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति।
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