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Jain Edodatio
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
त्याग की भूमिका में सारे सुख साधन उपलब्ध होते हुए भी व्यक्ति अपने उपयोग की वस्तुओं, उपभोगों को कम करता जाता है । भूमिका सिद्ध होने लगती है तो वह व्यक्ति प्रतिज्ञा (संकल्प) धारण की भावना करता है। स्वसंयम हेतु मूल परम्परा में 11 प्रतिज्ञाओं (अपने स्वरूप) का विधान है। प्रथम दर्शन प्रतिज्ञा में देवदर्शन तथा सम्यग श्रद्धा प्रधान है। (शरीर तथा आत्मा की भिन्नता को समझ पर्यायों को ऐकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक समझ प्रत्येक जीव की आत्मा को महत्व देना) दूसरी व्रत प्रतिज्ञा के अंतर्गत वह पंचपापों को स्थूल में त्यागता है, जिसमें 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रतों का पालन करते हुए व्यक्ति चाहे तो स्वसंयम की भूमिका में स्वयं को अणुव्रती भी बना सकता है। इससे दो प्रतिज्ञाएँ पलने लगती है। ऐसा 'श्रावक' सुंदर मानव समाज के लिए आदर्श होता है। एकासन, आहार संयम, ऊनोदर, उपवास आदि की भूमिका बनाते हुए सामायिक प्रतिज्ञा को स्वीकारता है। धर्म लीन श्रावक निरन्तर प्रतिज्ञाएँ बढ़ाते हुए ग्यारहवीं प्रतिज्ञा तक पहुंच जाते हैं। इस बीच वे उपवासों को बार बार धारण करके अपने स्वसंयम को उत्कृष्ट बनाने की चेष्टा करते है। एक उपवास में अब 'एकासन' नहीं 48 घंटों तक का सम्पूर्ण आहार-जल त्याग रहता है। पिछले दिन के एकासन के बाद दूसरे दिन का उपवास तथा तीसरे दिन पुनः एकासन एक उपवास को सार्थकता देते है अर्थात एक उपवास से चार बार के भोजनों का त्याग हो जाता है।
किसी अन्य धर्म में इस प्रकार के उपवासों और शरीर तथा मन शोधन का प्रावधान देखने में नहीं आता अतः वे इसके महत्व को नहीं समझ पाते किन्तु इसको कर लेने पर वे अपने शरीर सामर्थ्य को समझ सकते है।
मैंनें अधिकांश मूल परम्परा की माताओं बहनों को साधुओं की तरह ऐसे ही उपवास अष्टमी चतुर्दशी के करते हुए पाया है। साधुगण तो 32 प्रकार के अंतराय पालते हुए 46 दोषों रहित एकबार ही भोजन को कर पात्र द्वारा ग्रहण करते है जिसमें रसी पालन भी रहता है परन्तु साधुओं की तरह किन्हीं किन्हीं श्रावकों को बेला (दो दिन) तेला (3 दिन) और कभी कभी तो 7 दिन तथा 9 दिन 10 दिन के इस प्रकार निर्जल उपवास करते हुए देखा है। जिनके बोलने चालने पूजनादि क्रियाओं आवश्यकों को सामान्य होते देखकर आश्चर्य होता है कि यह कैसे संभव है ? उनका शरीर सूखकर 'सुत' जाता है किन्तु उत्साह मुझे कभी कम नहीं लगा। 10 प्रतिज्ञाधारी कई वृद्धाएँ सहज ही 3-4 दिन के उपवास सामान्य खींच लेती है इनके तप और स्वास्थ्य को देखकर 'बायोविज्ञान पर तरस आता है कि उसे सही दिशा नहीं दी गई है।
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बायो फार्मेसी के अंतर्गत शरीर को 70% जलांश को संभाला जाता है ताकि रूधिर में गाढापन न आकर गुर्दों से विकारों का निष्कासन बराबर बना रहे। किन्तु एक ही बार आहार के साथ जल लेने वाला कितना जल ले पायेगा ये कल्पना की जा सकती है। गुर्दों की कार्य क्षमता सामान्य बनी रहने में रस त्याग (नमक, मीठे) मदद करता है तथा रक्त हेतु पानी की पूर्ति मांसल जल से होती है। फल स्वरूप मांस सिकुड़कर हलका हो जाता है और विकार फिंक जाते है। ऐसे व्यक्तियों को जलांश कम होने से इन्फेक्सन्स् भी कम आते है। ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा तपस्वी कुदरत के अधिक समीप रहता है।
श्वेताबर परम्परा में भी एक वर्ष तक के उपवासों का रिकार्ड देखा गया है किन्तु वह प्रतिदिन जलाहार द्वारा संयमित रहता है। मूल परम्परा के आचार्य शांतिसागरजी का विशेष रिकार्ड है जिन्होंने अपने साढ़े 32 वर्ष के मुनिजीवन काल में 9938 उपवास सहित बितायें है।
मैंने ऐसे उपवास करने वाले गृहस्थों का निरीक्षण करने पर पाया कि उनकी पल्स नॉर्मल थी, बी.पी. सामान्य से कुछ कम Urine discharge low था । किन्तु सामान्य गतिविधियों में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता था। उनके चेहरे के वैभव अथवा मंदिर दर्शन, स्वाध्याय, घटावश्यकों में मुझे कोई कमी प्रतीत नहीं हुई एक गृहस्थ 75 वर्ष की वृद्धा राधा बाई थी, दूसरी एक ब्रह्मचारिणी किरण 30 वर्षीया थी दोनों के सामान्य रक्त चाप और शक्ति प्रतीत होते थे। दोनों ने 10 10 दिन का लगातार निर्जल उपवास किया था।
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Ematio
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा' की गाथा 373-376 के अनुसार ऐसे उपवासों का निर्जरा संबंधी महत्व दर्शाया गया है। गाथा 377-378 में मात्र भोजन त्याग को उपवास नहीं माना गया है। वह तो 'लंघन' कहलाता है। जो विषय और कषायों को अंतरंग से त्याग कर बिना किसी आशा के भेद ज्ञान (आत्मा और शरीर के भेद को समझते हुए) शरीर और सांसारिक प्रवृतियों की सार्थकता उसे आन्तरिक विशुद्धि के रूप में मिलती हे। वही उपवास कहलाता है।
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