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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जैन परम्परा में उपवासों का वैज्ञानिक महत्व
डॉ स्नेहरानी जैन, सागर जैन धर्म विश्व के सर्वप्राचीन धर्मों में से एक है। जिसमें स्वयं के अंदर गुणों की उन्नति हेतु गुण धर्म की उपासना की जाती है। विश्व का कोई अन्य धर्म इस प्रकार के सिद्धांत नहीं रखता। क्योंकि वे सब किसी सृष्टिकर्ता परमात्मा की उपासना करते है जो प्रत्येक जीव की स्थिति गुण दोषों हेतु जिम्मेदार है। सब अपने अपने उसी इष्ट परमात्मा की उपासना, पूजा करके अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। जबकि जैन धर्म कर्म सिद्धांत को सर्वोपरि मानते हुए कर्मों की निर्जरा (निवारण) की ओर ध्यान देता है। इसमें गुणों की उन्नति की ओर ध्यान दिया जाता है। धर्मी, गुणी ही होगा।
तब प्रश्न उठता है कि जैन कौन ? उत्तर मिलता है 'जिन' का अनुयायी जैन है। प्रश्न पुनः उठता है 'जिन' कौन? उत्तर होता है, "जिसने अपनी इन्द्रियों और मन पर संपूर्ण विजय पायी है वही 'जिन' है। यह कार्य अत्यन्त दुरूह है- स्वयं की इच्छाओं पर विजय पाना, इन्द्रियों को वश में करना साधारण बात नहीं है। वहीं परम वीरता है। जबकि प्रत्येक सामान्य इन्सान इन्द्रियों और मन के वशीभूत होकर ही सारा जीवन बिता लेता है। ऐसी स्थिति में जैन वह भी कहलाता है जो जैनकुल में जन्मा है तथा जो शाकाहारी संस्कारों का है तथा जो जिन देव की पूजा करता है।
'जैन' शब्द का अस्तित्व महावीर काल में अधिक जोर पकड़ गया इसलिये लोगों को भ्रम हो गया कि जैन धर्म महावीर स्वामी ने चलाया। जबकि 'जिन' शब्द का प्रयोग प्राचीन था तथा महावीर स्वामी के माता पिता इसी धर्म के अनुयायी थे। वास्तव में महावीर स्वामी से पहले 'श्रमण धर्म नाम प्रचलित था। गौतम बुद्ध ने उसी श्रमण धर्म को स्वीकार कर प्रथम वर्ष निर्ग्रन्थ बनकर (नग्न विचरण करके) ही तपस्या की। जब वह उन्हें अति कठिन लगा तब उन्होंने 'मध्यम मार्ग' स्वीकार करके अपना अलग धर्म 'बौद्ध धर्म' के नाम से प्रतिष्ठित कराया। किन्तु दोनों ही धर्मों के साधुओं को जनसमुदाय 'श्रमण' पुकारता था। उनमें पहचान बताने के लिए "जैन श्रमण' और 'बौद्ध श्रमण नाम चल पड़े और धर्मों के लिए 'जैन' तथा 'बौद्ध धर्म। दोनों ही धर्मों में अहिंसा को मान्यता दी गई। श्रमण जैन तो सदैव से ही जीव दया के पुजारी थे। आदिनाथ के काल से ही जब से कल्पवृक्ष गायब हुए जीवों ने नख सींग दिखवाए, मनुष्य भी संस्लेशित हो गये थे, कलह करने लगे थे "अहिंसा और वीतरागत्व” को प्रधानता दी गई थी। जो पथ 'आदिनाथ' और उनके बेटों "बाहुबलि और भरत" ने अपनाया। वही परम्परा “आर्य परम्परा रही, जो समस्त श्रमणों, केवलियों, तीर्थकरों ने अपनाई। ये एक अक्षुण्ण परम्परा थी, जो सदैव जैन साधुओं/तपस्वियों ने अपनाई। इसमें 'नकल' नहीं 'सत्य' की खोज थी 'सत्यार्थियों द्वारा। सर्वत्र पर्यायों का अस्तित्व स्वयं की पर्याय कथा 84 लाख योनियों में तथा स्वास्तिक की चार गतियों में निरख सभी ने उस वीतरागत्व की राह पकड़ी थी। जो तुषमात्र भी परिग्रह न रख, नवजात शिशु की भांति निरीह बन इसी प्रकृति में जीने को तत्पर था। कुदरत का प्रत्येक प्राणी जिस निरीहता से जीता है, उस निरीहता में अन्य प्राणी अबोध होते हुए अपना अपना सीमित ज्ञान लिये प्रवर्तते हैं किन्तु जैन श्रमणों के चिन्तन ने पूरा ब्रह्मांड छान डाला। सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और दूर से दूरतम अस्तित्व भी उनके चिन्तन में स्पष्ट झलक गये। गणित, ज्योतिष, भाषा, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, न्याय, रसायन विज्ञान, भौतिकी, प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, वर्गणायें, निगोद, कार्मण वर्गणाएँ, इन्द्रियां सभी कुछ उनके सामने स्पष्ट थे। जो विवेचन भावों की उत्कृष्ट उपलब्धि का जैन श्रमणों ने प्रस्तुत किया है, वैसा किसी अन्य साधुओं अथवा चिन्तको ने नहीं कर पाया है। इसका कारण था-श्रमण वही था जो श्रम करते हुए आत्मा में रहता था। राजा खारवेल की गुफा द्वार पर जो मूलमंत्रांश देखने में आता है - "णमो सिद्धाणं" तथा "णमों अरहताणं" वे दोनों ही परमेष्ठियां सर्वोत्कृष्ट 'ज्ञान' की उपलब्धियां थी। पहली 'अशरीरी' दूसरी 'सशरीरी'। 'सशरीरी परमेष्ठी की स्थिति में पहुंचने वाले पथिक तपस्वी, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु भी सामान्य धर्म निष्ठ गृहस्थ के लिए परमेष्ठी स्वरूप थे। ये मिलकर ही 5 परमेष्ठियां बनाते थे। इनके ही बतलाये पथ पर चलने वाला जिन मार्गी कहलाता था जो गृहस्थ की भूमिका से
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