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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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संभवतः नहीं। हम बिफरी हुई जल के आवेग से आपूर्ण गंगा से भागते हैं। आज हमारे पापों की गंगा में बाढ़ आ चुकी है। पाप विवशता हो सकती है। परन्तु यह सुविशेष बढ़ जाये तब यह पापों की बाढ़ आत्मा का नाश क्या नहीं करेगी? पापों की गंगा आत्मा के मूल गुणों रूपी अस्थियों का विसर्जन कर देगी, जिस पर आत्मा का ढांचा खडा है।
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि “पुण्यात्मा जहां कहीं भी जाता है, सब जगह सफलता एवं सुख पाता है।"
हमें क्या करना है ? पाप का दाग जितना गाढ़ा होता है, उसके नाश के लिए उतने ही बडे प्रायश्चित रूपी रसायन की आवश्यकता रहती है। पापों को टेस्ट मत करना। टेस्ट करने वाले वेस्ट हो जाते है। क्योंकि खून का स्वाद कभी छूटता नहीं।
हम पानी के खतरे से बचाने के लिए वॉटरप्रूफ घडी का, भीगने से बचने के लिए वॉटरप्रूफ वस्त्र का, जलने से बचने के लिए फायरप्रूफ वस्त्र का, सर्दी की भयंकरता से रक्षा के लिए विंटरप्रूफ कमरे का इस्तेमाल करते हैं। हमारा शरीर डिसीज प्रूफ है, हमारी वाणी एब्यूजप्रूफ है, हमारी डॉयरी कोडवर्ड में लिखी होने से सिक्रेसीप्रूफ है, परन्तु क्या हमारा हृदय सिन (पाप) प्रूफ है ? कैसे हो सकता है? सिनप्रफ वस्त्र आज तक मार्केट में नहीं आया है। और आ भी नहीं सकेगा। सिनप्रूफ वस्त्र मन में उत्पन्न किया जा सकता है। सिन (पाप) पश्चाताप की अग्नि में जलकर भस्म हो जाता है। विवेक ही सिनप्रूफ वस्त्र है। जो व्यक्ति प्रतिक्षण अलर्ट रहता है, वह पाप से बच सकता है।
पाप कार्य है तो पाप बुद्धि कारण है। कारण के नष्ट होने पर ही कार्य नष्ट हो सकता है। अतएव पाप न करने का नियम दिलाने के स्थान पर पाप बुद्धि को ही समाप्त करना चाहिए।
एक स्थान पर कुछ मिठाई पड़ी थी। बहुत सी चींटियाँ वहाँ पर आई। चींटियों ने मिठाई खाकर उदर पूर्ति की। सभी आनंदित हो वहां से चलने लगी तो क्या देखा, एक चींटी मूंह बिगाड़कर मिठाई खाने के प्रयत्न में लगी है, परन्तु उसे आनंद नहीं आया। वह बोली "मुझे लगता है कि लड्डू का ऊपर का भाग खारा है। मुझे लड्डू खारा ही लग रहा है। तुम झूठ बोलती हो, लड्डू मीठा ही नहीं है। तब एक बुद्धिमती चींटी बोली "जरा अपना मुंह तो दिखा।
उसने मुंह दिखाया। बुद्धिमती चींटी ने देखा कि मुंह में पहले से ही कुछ भरा हुआ है। "यह क्या भर रखा है मुंह में। इसे बाहर तो थूक ।”
चींटी ने जब बाहर थूका तो प्रतीत हुआ कि वह नमक का ढेला है। बुद्धिमती चींटी बोली "देख! तूने यह नमक का ढेला मुंह में भर रखा था, अतः तुझे मीठे का स्वाद नहीं आया। अब नमक मुंह में से निकाल देने के पश्चात चखकर देख। और सच! अब वह चींटी हर्षित हो गई। क्योंकि लड्डू का वास्तविक स्वाद उसे मिल चुका था।
जब पाप रूपी नमक मुंह में हों तब तक सुख की प्राप्ति व अनुभूति कैसे हो सकती है ?
आप और हम भी अत्यधिक धर्म ध्यान करते हैं परन्तु थोडा सा पाप रूपी नमक अपने मन में रखते हैं। निंदा चुगली का नमक। फिर आनंद न आए तो स्वाभाविक ही है। आपने पूजा तो बहुत की परन्तु अश्रद्धा का नमक हृदय में रखा तो पूजा का आनंद अनुभव न हो सकेगा। आपने प्रतिक्रमण तो दिन में दो बार किया परन्तु पाप बुद्धि से पीछे न हटे तो प्रतिक्रमण कल्याणकारी न बन सकेगा। मानव पहले जीवन में पाप करता है तदानंतर पुण्य करता है, अतएव उसे पुण्य करने का आनंद नहीं आता। अतः पाप के त्याग की आवश्यकता है। जब पाप रूपी विष कम हो तो धर्म क्रिया तथा पुण्य रूपी अमृत से अलौकिक सुख प्राप्त होगा।
सारांश:- कालिदास ने कहा है कि “पाप एक प्रकार का अंधेरा है जो ज्ञान का प्रकाश होते ही मिट जाता है।"
महात्मा गांधी कहा करते थे "पाप करने का अर्थ यह नहीं कि जब वह आचरण में आ जाये तब ही उसकी गिनती पाप में हुई। पाप तो जब हमारी दृष्टि में आ गया। वह हम से हो गया।
अब तो पापों की आंधी में बहने का आपको विचार नहीं आ रहा ना। पाप से रक्षा के लिए प्रयास की आवश्यकता है।
आइए, आप और हम दुर्गुण रूपी कचरा, आत्मा का पाप रूपी विष निकाल कर बाहर फेंक दें। तथा पुण्य और सद्गुणों के भंडार को प्राप्त करें।
"पापी पाप न कीजिये, न्यारा रहिये आप। करणी आपो आपरी, कुण बेटो कुण कुण बाप।"
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 120 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति