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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
जबकि जैनेत्तर साधु तथा सामान्य ऐश्वर्य-रत मनुष्य अस्पतालों में कराहते, चीखते, चिंता/भय करते दम तोड़ते हैं, एक जैन साधु संपूर्ण जीवों से क्षमा मांगते हुए सबको क्षमा करते हुए अपनी महायात्रा के लिए अपने सच्चे स्वरूप को ध्याते हुए, सिद्ध गुरुओं को नमन करते देह त्यागता है। ज्ञानवान गृहस्थ भी ऐसा ही करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उसे जीवन में अपनाया संयम, व्रत, उपवास सहयोग करते है। यह प्रक्रिया क्रमशः सम्पन्न होती है।
प्रथम तो संकल्प लेने वाला संयमी अपना ठोस आहार धीरे धीरे कम करता है। एकासन की दैनिक परम्परा संभव हो जाने पर अपने शरीर की कमजोर स्थिति, बुढ़ापा, रोग तथा व्याधि या उपद्रव देख वह ठोस आहार धीरे धीरे त्याग करके लेह्य, पेय आदि पर आ जाता है। इसमें दूध, रस, फल आदि होते हैं। पश्चात वह मात्र दूध पर, फिर क्रमशः छाछ पर, रसों पर, जल पर आकर उचित समय विदाई का निकट जान मृत्यु पर्यन्त संपूर्ण आहार जल का दृढ़ता से त्याग करता है। इसके लिये अत्यधिक साहस और समता की आवश्यकता होती है। उसकी सामायिक की सच्ची परीक्षा होती है। अज्ञानी जन इसे आत्महत्या समझते हैं, जिसे जैनधर्म में घोर पाप माना गया है। आत्महत्या 'स्वहिंसा है जो प्रमाद/कषाय के अंतर्गत भावों के अतिरेक में होती है। जिसमें मृत्यु हेतु हिंसक तरीके उपयोग किये जाते हैं। यह एकाएक होती है। कभी पब्लिक, पर अधिकांश एकांत में होती है। जबकि संल्लेखना अथवा संथारा संपूर्ण सहज भाव से अपने शरीर और आत्मा के भेद को समझकर शरीर के सहयोग हेतु होते हैं। इसमें लंबे काल में धीरे धीरे प्रगति करते हुए त्याग, सहर्ष स्वयं द्वारा होता है। सबसे मैत्री भाव के साथ समता भाव लिये बिना किसी चिन्ता अथवा आकांक्षा के आत्म चिन्तन बनता है। कर्तव्य बोध तथा जागृति रहती है। सामाजिक रूप से सबको ज्ञात होती है।
आचार्य शांतिसागर मुनि महाराज की 38 दिन की संल्लेखना संपूर्ण त्याग के बाद 14 दिनों के निर्जल उपवास से पूर्ण हुई (18.9.1955)। इसी प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी की संघस्थ क्षुल्लिका श्री समाधिमतीजी की 33 दिवसीय सल्लेखना संपूर्ण त्याग के एक दिन के ही निर्जल उपवास से पूर्ण हुई थी। श्री समाधिमतीजी की संल्लेखना में मैं स्वयं उपस्थित थी। श्लेष्म, थूक सब सूख चुका था। हड्डियों के ऊपर मात्र त्वचा का आवरण था। अत्यन्त सूक्ष्म नाडी गति थी।
जैन धर्म कायरों का नहीं, वीरों का धर्म है। बड़े बड़े चक्रवर्तियों ने, राजाओं ने संसार के समस्त वैभवों को ठुकरा कर इसे अपनाया है। यदि यह निरर्थक, खोखला और उपयोग रहित अथवा मिथ्यात्व पूर्ण होता तो तीर्थकर इसे कभी नहीं अपनाते। इसे प्रत्येक तपस्वी ने अपने अपने तरीकों से जांचा, आंका और खरा पाया है। आश्चर्य नहीं है कि मार्गरेट स्टीवेन्सन का साध्वी (श्वेताम्बर साधुत्व) बनने के बाद भी सत्यता से परिचय नहीं हो पाया। उनकी मूल चारित्र में प्रवृत्ति उन्हें निश्चित ही ठोस आधार पर रखती है और वह जैन धर्म के ऊपर “द एम्प्टी हार्ट ऑफ जैनिज्म” न लिखकर "रिचनेस ऑफ जैनिज्म या यही कुछ नोएल किंग की तरह लिखती।
संदर्भ 1. नोएल किंग - जैनिज्म ऐ वैस्टर्न परसेप्शन डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, अभिनंदन ग्रंथ जैन केंद्र, रीवा, म.प्र. 1998 पृ. 226 2. स्वामी सामन्तभद्र विरचित रत्नकण्ड – श्रावकाचार 3. आचार्य वहकेर रचित मूलाचार 4. स्वामी कार्तिकेय विरचित : कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 361 5. स्वामी कार्तिकेय विरचित : कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथाएं 373-376 और 377-378
स्वर्गीय पं सुमेरुचन्द्र दिवाकर : चारित्र चक्रवर्ती आचार्य ज्ञानासागर वागर्थ विमर्श केंद्र व्यावर, सप्तम संरकरण 1997
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