________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
ज्ञानवाद और प्रमाण शास्त्र
-उपप्रवर्तक सुभाष मुनि सुमन ज्ञान आत्मा का स्वाभविक गुण है। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक धर्म मानता है। आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है। आगमों में ज्ञानवाद :
आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती है वे बहुत प्राचीन है। सम्भवतः ये मान्यताएँ भगवान महावीर के पहले की हैं। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है। उसके विषय में राजप्रश्नीय सूत्र में एक वृतांन्त मिलता है। श्रमण केशीकुमार अपने मुख से कहते है - हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते है - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यायज्ञान, केवलज्ञान । केशीकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे। उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का नाम लिया है। ठीक वे ही पांच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हुआ। महावीर ने ज्ञान विषयक कोई नवीन प्ररूपणा नहीं की। यदि पार्श्वनाथ की परम्परा से महावीर का एतद्विषयक कुछ भी मतभेद होता तो वह आगमों में अवश्य मिलता। पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रायः एक सी है। इस विषय पर केवलज्ञान और केवल दर्शन आदि की एक दो बातों के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है। मतिज्ञान :
आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध को एकार्थक बताया है। भद्रबाहु ने मतिज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों को प्रयोग में लिया है - ईहा. अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा। नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द है। मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। स्वोपज्ञ भाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताये गये हैं - इन्द्रिय जन्य ज्ञान और मनो जन्य ज्ञान। ये दो भेद उपर्युक्त लक्षण से ही फलित होते हैं। सिद्धसेनगणि की टीका में तीन भेदों का वर्णन है। इन्द्रिय जन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य। इन्द्रियजन्य ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है। अनिन्द्रियजन्य ज्ञान केवल मन से पैदा होता है। इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपयुक्त सूत्र से ही फलित होते है।
अकलंक ने सम्यग्ज्ञान के दो भेद किये हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। पत्यक्ष दो प्रकार का है - मुख्य और साव्यवहारिक । मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और साव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किये गये हे - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि परीक्षान्तर्गत है इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद बताये गये है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्मृति, संज्ञा आदि भेद है। श्रुतज्ञान :
श्रुतज्ञान का अर्थ है, वह ज्ञान जो श्रुत अर्थात शास्त्रनिबद्ध है। आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है, श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं - अंग बाहृा और अंगप्रविष्ट । जिन ग्रन्थों के रचयिता स्वयं गणधर हैं वे अंगप्रविष्ट हैं और जिनके रचयिता उसी परम्परा के अन्य आचार्य हैं वे अंग बाहा ग्रन्थ हैं। अंगबाह्य ग्रन्थ कालिक, उत्कालिक आदि अनेक प्रकार के है। अंगप्रविष्ट के 12 भेद है। ये बारह अंग कहलाते है। श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है। किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन है। श्रुतज्ञान के 14 मुख्य प्रकार है अक्षर, संज्ञी, सम्यक, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंबाह्य ये सात विपरीत। नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है।
अप
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति 111 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
Editation internations
For Private