________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान आत्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं। जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में पूर्णता के अभाव के साथ अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के सद्भाव का द्योतक हे। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है - सम्पूर्ण है। अतः उसके साथ मति आदि अपूर्णज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन की केवलज्ञान विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अंतिम सोपान है। दर्शन और ज्ञान :
उपयोग दो प्रकार का होता है - अनाकार व साकार । अनाकार का अर्थ है निर्विकल्पक और साकार का अर्थ है सविकल्पक। जो उपयोग सामान्यभाव का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है। सत्ता सामान्य की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता हे।
जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित है। कर्म विषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है। ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को आवृत करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते है। इन दोनों प्रकार के आवरणों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है। आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणई' (जानाति) अर्थात जानता है और दर्शन के लिए 'पासई (पश्यति) अर्थात देखता है का प्रयोग हुआ है।
"दर्शन और ज्ञान युगपद न होकर क्रमशः होते है। इस बात का जहां तक छद्मस्थ अर्थात सामान्य व्यक्ति से संबंध है सभी आचार्य एक मत है किन्तु केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है। केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है ? इस प्रश्न के विषय में तीन मत है। एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होतें है। दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद होते है। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है दोनों एक है। आगमों में प्रमाणचर्चा :
प्रमाणचर्चा केवल तर्कयुग की देन नहीं है आगमयुग में भी प्रमाण विषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्र रुप से प्रमाण चर्चा मिलती है और ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास याप्त प्रमाण है।
भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते है “भगवन्! जैसे केवली अंतिम शरीरी (जो इसी भव में मुक्त होने वाले है) को जानते हैं वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते है। ?" महावीर उत्तर देते है - "गौतम! वे अपने आप नहीं जान सकते या तो सुनकर जानते है या प्रमाण से।” किससे सुनकर? केवली से ....! किस प्रमाण से? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहां भी समझना चाहिए।
स्थानांग सूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किए गए हैं-द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भावप्रमाण। हेतु शब्द का जहां प्रयोग है वहां भी चार भेद मिलते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। कहीं कहीं पर प्रमाण के तीन भेद भी मिलते है। स्थानांग सूत्र में व्यवसाय को तीन प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक, और अनुगमिक। व्यवसाय का अर्थ होता है निश्चय। निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 114 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
स
wjainelti