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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
मनःपर्ययज्ञान :
मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मन:र्ध्याय ज्ञान है। यह मनुश्य क्षेत्र तक सीमित है। गुण के कारण उत्पन्न होता है और चरित्रवान व्यक्ति ही उसका अधिकारी है यह मनःपर्यय ज्ञान की व्याख्या आवश्यक नियुक्तिकार ने की है। मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है। उसका मन तद्तद् पर्यायों में परिणत होता है। मनःपर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति उस समय यह बात सोच रहा है। अनुमान कल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि "अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है। मनःपर्यय ज्ञान नहीं है । मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनः पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान आत्मपूर्वक होता है न कि मनपूर्वक। मन तो विषय मात्र होता है। ज्ञाता साक्षात् आत्मा है।
मनःपर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं- ऋजुमति और विपुलमति। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के सूक्ष्मतर परिणामों को भी जान सकता है। दूसरा अंतर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति नष्ट नहीं हो सकता। वह केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त अवश्य रहता है। अवधि और मनःपर्ययज्ञान :
अवधि और मनःपर्ययज्ञान दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित है तथा अपूर्ण अर्थात विकल प्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर चार दृष्टियों से है – विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय। मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशदरूप से जानता है अतः उससे विशुद्धतर है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान होना। मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है। अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है। मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्य लोक (मानुषोतर र्वत पर्यन्त है)। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यंच किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चरित्रवान् मनुष्य ही हो सकता हे। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य है(सब पर्यायनहीं) । किन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय केवल मन है जो कि पीद्रव्य का अनन्तवां भाग है।
अवधिज्ञान ओर मनःपर्ययज्ञान में कोई ऐसा अंतर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है। एक ज्ञान कम विशुद्ध है दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध हे। दोनों के विषयों में भी समानता ही है। दोनों ज्ञान आंशिक आत्म प्रत्यक्ष की कोटि में है।
केवलज्ञान :
_यह ज्ञान विशुद्धतम है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। केवल्यज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म है - मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय। यद्यपि इन चारों कर्मों के क्षय से चार भिन्न भिन्न शक्तियां उत्पन्न होती हैं किन्तु केवलज्ञान उन सब में मुख्य है। केवलज्ञान का विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हो जिसको केवलज्ञानी न जानता हो, कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो, जितने भी द्रव्य हैं और उनके वर्तमान भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं सब केवलज्ञान के विषय है। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है। इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान है, सब समाप्त
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