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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
का प्रयोग किया जाता है उसके हिस्से । आचार्य भद्रबाहु ने दशवैकालिक नियुक्ति में अवयवों की चर्चा की है। उन्होनें दो से लगाकर दस अवयवों तक के प्रयोग का समर्थन किया है। उपवान :
उपवान दो प्रकार का है - साधोपनीत और वैधर्मयोपनीत । साधोपनीत के तीन भेद है - किंचित साधोपनीत, प्रायः साधोपनीत और सर्व साधोपनीत । किंचित साधोपनीत :
जैसा मन्दर है वैसा सर्षप है, जैसा सर्षप है वैसा मन्दर है, जैसा समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा समुद्र है। जैसा आदित्य है वैसा खद्यौत है, जैसा खद्यौत है वैसा आदित्य है। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, जैसा कुमुद है वैसा चन्द्र है। ये उदाहरण किंचित साधोपनीत उपमान के है। मन्दर और सर्षप का थोड़ा सा साधर्म्य है। इसी प्रकार आदित्य और खद्यौत आदि को समझलेना चाहिए। प्रायः साधोपनीत जैसा गौ और गवय का बहुत कुछ साधर्म्य है। यह प्रायः साधोपनीत का उदाहरण है। सर्व साधोपनीत :
जब किसी व्यक्ति की उपमा उसी व्यक्ति से दी जाती है तब सर्वसाधर्योंपनीत उपमान होता है। अरिहन्त अरिहन्त ही है। चक्रवर्ती चक्रवर्ती ही है - इत्यादि प्रयोग सर्वसाधौंपनीत के उदाहरण है। वास्तव में यह कोई उपमान नहीं है। इसे तो उपमान का निषेध कह सकते है। उपमा अन्य वस्तु की अन्य वस्तु से दी जाती है।
वैधयॊपनीत भी तीन प्रकार के हैं - किंचित वैधोपनीत, प्रायोवैधौँपनीत, और सर्ववैधयॉंपनीत। किंचितवैधापनीत :
इसका उदाहरण दिया गया है जैसा शाषलेय है वैसा बाहुलेय नहीं है, जैसा बाहुलेय है वैसा शाषलेय नहीं है। प्रायोवैधोपनीत -
जैसा वायस है वैसा पायस नहीं है, जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है। यह प्रायोवैधोपनीत का उदाहरण है। सर्ववैधोपनीत -
इसका उदाहरण दिया गया है कि नीच ने नीच जैसा ही किया, दास ने दास जैसा ही किया यह उदाहरण ठीक नहीं। इसमें तो सर्वसाधोपनीत का ही आभास मिलता है। कोई ऐसा उदाहरण देना चाहिए जिसमें दो विरोधी वस्तुएँ मिलती हों। नीच और सज्जन, दास और स्वामी आदि उदाहारण दिए जा सकते है। आगम :
आगम के दो भेद किये गये है-लौकिक और लोकोत्तर।
लौकिक आगम में जैनेत्तर शास्त्रों का समावेश है जैसे रामायण, महाभारत, वेद आदि। लोकोत्तर आगम में जैन शास्त्र आते है इनकी रचना सर्वज्ञ द्वारा होती है।
आगम के दूसरी तरह के भेद भी मिलते है। इनकी संख्या तीन है आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम। तीर्थकर अर्थ का उपदेश देते हैं और गणधर उनके आधार से सूत्र बनाते है। अर्थ रूप आगम तीर्थंकर के लिए आत्मागम है और सूत्ररूप आगम गणधरों के लिए आत्मागम है। अर्थरूप आगम गणधरों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि तीर्थकर गणधरों को साक्षात लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश देते है। गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थरूप आगम परम्परागम है, क्योंकि उन्हें अर्थ का साक्षात उपदेश नहीं दिया जाता अपितु परम्परा से प्राप्त होता है। अर्थागम तीर्थंकर से गणधरों के पास जाता है और गणधरों से उनके शिष्यों के पास आता है। सूत्र रूप आगम गणधर शिष्यों
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